________________ 196] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र उनके परिनिर्वाण (समाधिपरण) सम्बन्धी कायोत्सर्ग किया। फिर उनके पात्र, वस्त्र (चीवर) प्रादि उपकरणों को लेकर वे विपुलगिरि से शनैः शनैः नीचे उतरे / उतरकर जहाँ श्रमण भगवान महावीर स्वामी विराजमान थे, वहाँ भाए / भगवान् को वन्दना-नमस्कार करके उन स्थविर मुनियों ने इस प्रकार कहा-हे भगवन् ! आप देवानुप्रिय के शिष्य स्कन्दक अनगार, जो कि प्रकृति से भद्र, प्रकृति के विनीत. स्वभाव से उपशान्त, अल्पक्रोध-मान-माया-लोभ वाले, कोमलता और युक्त, इन्द्रियों को वश में करने वाले. भद्र और विनीत थे, वे आपकी प्राज्ञा लेकर स्वयमेव पंचमहावतों का आरोपण करके, साधुसाध्वियों से क्षमापना करके, हमारे साथ विपूलगिरि पर गये थे, यावत् वे पादपोपगमन संथारा करके कालधर्म को प्राप्त हो गए हैं / ये उनके धर्मोपकरण हैं। विवेचन---स्कन्दमुनि द्वारा संल्लेखनाभावना, अनशन ग्रहण और समाधिमरण--प्रस्तुत पांच सूत्रों (47 से 51 तक) में स्कन्दमुनि द्वारा संल्लेखनापूर्वक भक्तप्रत्याख्यान अनशन की भावना से लेकर उनके समाधिमरण तक का वर्णन किया गया है। संल्लेखना-संथारा (अनशन) से पूर्वापर सम्बन्धित विषयक्रम इस प्रकार प्रस्तुत किया गया है-(१) धर्म जागरणा करते हुए स्कन्द कमुनि के मन में संल्लेखनापूर्वक पादपोपगगन संथारा करने की भावना, (2) भगवान् से संल्लेखना-संथारा करने की अनुज्ञा प्राप्त की, (3) समस्त साधु-साध्वियों से क्षमायाचना करके योग्य स्थविरों के साथ विपुलाचल पर प्रारोहण, एक पृथ्वीशिलापट्ट पर दर्भसंस्तारक, विधिपूर्वक यावज्जीव संलेखनापूर्वक अनशन ग्रहण किया (4) एक मास तक संल्लेखना-संथारा की आराधना करके समाधिपूर्वक मरण को प्राप्त हुए। (5) तत्पश्चात् उनके साथी स्थविरों ने उनके अवशिष्ट धर्मोपकरण ले जाकर भगवान को स्कन्दक अनगार की समाधिमरण प्राप्ति की सूचना दी / कुछ विशिष्ट शब्दों के अर्थ---फुल्लुप्पलकमलकोमलुम्मिलियम्मि= कोमल उत्पलकमलों के विकसित हो जाने पर ! अहापंडुरे पभाए= निर्मल प्रभात हो जाने पर / पाउप्पभायाए = प्रातःकाल / कडाइ-कृत योगी आदि प्रतिलेखनादि या आलोचन-प्रतिक्रमणादि योगों (क्रियाओं) में जो कृत= कुशल हैं, वे कृतयोगी आदि शब्द से प्रियधर्मी या दढ़धर्मी / संपलि अंनिसन्ने = पदमासन (पर्यका. सन) से बैठे हुए / संलेहणाझसणाझसियस्स-जिसमें कषायों तथा शरीर को कृश किया जाता है, वह है संल्लेखना तप, उसकी जोषणा-सेवना से जुष्ट-सेवित अथवा जिसने संल्लेखना तप की सेवा से कर्म क्षपित (भूषित) कर दिये हैं / सद्धिभत्ताई अणसणाए इत्ता= अनशन से साठ भक्त (साठ वार-टंक भोजन) छोड़कर / परिणिध्वाणवत्तियं - परिनिर्वाण = मरण अथवा मृतशरीर का परिष्ठापन / वही जिसमें निमित्त है -वह परिनिर्वाण प्रत्ययिक / ' स्कन्दक की गति और मुक्ति के विषय में भगवत-कथन 53. "भते !' ति भगव गोयमें समणं भगव महावीरं वंदति नमसति, 2 एवं क्यासीएवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी खंदए नाम अणगारे कालमासे कालं किच्चा कहि गए, कहि उववणे? ... .-.-- --- ---- -- - 1. भगवती. अ. बत्ति, पत्रांक 126 से 129 तक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org