________________ 200 ] [ व्याख्याप्राप्तसूत्र 23. [1] अयं णं भंते ! जीवे सव्वजीवाणं दासत्ताए पेसत्ताए भयगत्ताए भाइल्लत्ताए भोगपुरिसत्ताए सोसत्ताए वेसत्ताए उववन्नपुब्वे ? हंता, गोयमा ! जाव अणंतखुत्तो। [23-1 प्र.] भगवन् ! क्या यह जीव, सभी जीवों के दास रूप में, प्रेष्य (नौकर) के रूप में, भतक रूप में, भागीदार के रूप में, भोगपुरुष के रूप में,शिष्य के रूप में और द्वेष्य (द्वेषी-ईर्ष्यालु) के रूप में पहले उत्पन्न हो चुका है ? [23-1 उ.] हाँ गौतम ! (यह जीव, सब जीवों के दास आदि के रूप में) यावत् अनेक बार या अनन्त बार (पहले उत्पन्न हो चुका है / ) [2] एवं सव्वजोवा वि अणंतखुत्तो। सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति जाब विहरति / // बारसमे सए : सत्तमो उद्देसओ समत्तो // 12-7 // [23-2] इसी प्रकार सभी जीव भी, (इस जीव के दास आदि के रूप में) यावत् अनेक बार अथवा अनन्त बार पहले उत्पन्न हो चुके हैं। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यों कह कर यावत् गौतम स्वामी विचरते हैं। विवेचन–प्रस्तुत चार सूत्रों (सू. 20 से 23 तक) में एक जीव एवं सर्वजोवों की अपेक्षा से माता आदि के रूप में, शत्रु आदि के रूप में, राजा आदि के रूप में और दासादि के रूप में अनेक वार या अनन्त बार उत्पन्न होने की प्ररूपणा की गई है। कठिन शब्दों के अर्थ-अरित्ताए–सामान्यतः शत्र के रूप में, वेरियत्ताए-जिसके साथ परम्परा से शत्रुभाव हो, उस वैरी के रूप में, घायगत्ताए-जान से मार डालने वाले हत्यारे के रूप में, वहमत्ताए मारपीट (वध)करने वाले के रूप में। पडिणीयत्ताए--प्रत्यनीक अर्थात्--- प्रत्येक कार्य में विघ्न डालने वाले, कार्यविघातक के रूप में। पच्चामित्ताए-अमित्र-शत्र के सहायक के रूप में / दासत्ताए-घर की दासी के पुत्र के रूप में। पेसत्ताए–प्रेष्य-प्राज्ञापालक नौकर के रूप में / भयगत्ताए--भृतक दुष्काल आदि में पोषित के रूप में। भाइल्लगत्ताए–भागीदार-हिस्सेदार के रूप में / भोगपुरिसत्ताए-दूसरों के द्वारा उपाजित अर्थ का उपभोग करने वाले के रूप में / भज्जत्ताएभार्या–पत्नी के रूप में। धूपत्ताए दुहिता-पुत्री के रूप में / सुण्हत्ताए-स्नुषा-पुत्रवधू के रूप में। / बारहवाँ शतक : सप्तम उद्देशक समाप्त / / 1. (क) भगवती. अ. वत्ति, पन 581 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेवन) भा. 4, पृ. 2061 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org