________________ छठा शतक : उद्देशक-४ ] [23 प्र.] भगवन् ! क्या जोव प्रत्याख्यान करते हैं, अप्रत्याख्यान करते हैं, प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यान करते हैं ? 123 उ.] गौतम ! जिस प्रकार प्रौघिकदण्डक कहा है, उसी प्रकार प्रत्याख्यान करने के विषय में कहना चाहिये / 24. जोवा णं भते ! कि पच्चक्खाणनिव्वत्तियाउया, अपच्चक्खाणनि०, पच्चक्खाणापच्चक्खाणनि? गोयमा! जीवा य वेमाणिया य पच्चक्खागणिवत्तियाउया तिणि वि / अवसेसा अपच्चक्खाणनिवत्तियाउया। [24 प्र.] भगवन ! क्या जीव, प्रत्याख्यान से निर्तित आयुष्य वाले हैं, अप्रत्याख्यान से निर्वतित आयष्य वाले हैं अथवा प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यान से नितित प्रायष्य वाले हैं? (अर्थात -क्या जीवों का आयुष्य प्रत्याख्यान से बंधता है, अप्रत्याख्यान से बंधता है या प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यान से बंधता है ?) [24 उ.] गौतम ! जीव और वैमानिक देव प्रत्याख्यान से निर्वतित आयुष्य वाले हैं, अप्रत्याख्यान से निर्वतित आयुष्य वाले भी हैं, और प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यान से निर्वतित आयुष्य वाले भी हैं / शेष सभी जीव, अप्रत्याख्यान से निर्वर्तित आयुष्य वाले हैं। विवेचन–समस्त जीवों के प्रत्याख्यानी, अप्रत्याख्यानी एवं प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानी होने, जानने और प्रायुष्य बांधने के सम्बन्ध में प्रश्नोत्तर-प्रस्तुत 4 सूत्रों में समस्त जीवों के प्रत्याख्यान, अप्रत्याख्यान एवं प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यान से सम्बन्धित पांच तथ्यों का निरूपण क्रमशः इस प्रकार किया गय (1) जीव प्रत्याख्यानी भी हैं, अप्रत्याख्यानी भी हैं, प्रत्याख्यानी-अप्रत्याख्यानी भी हैं। (2) नैरयिकों से लेकर चतुरिन्द्रिय जीव तक तथा भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव अप्रत्याख्यानी हैं / तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय अप्रत्याख्यानी और प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानी हैं, तथा मनुप्य प्रत्याख्यानी, अप्रत्याख्यानी और प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानी तीनों हैं। (3) पंचेन्द्रिय के सिवाय कोई भी जीव प्रत्याख्यानादि को नहीं जानते हैं। (4) समुच्चय जोव और मनुष्य प्रत्याख्यानादि तीनों ही करते हैं, तिर्थञ्च पंचेन्द्रिय अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यान करते हैं और शेष 22 दण्डक के जीव सिर्फ अप्रत्याख्यान करते हैं--(प्रत्याख्यान नहीं करते / ) (5) समुच्चय जीव और वैमानिक देवों में उत्पन्न होने वाले जीव प्रत्याख्यान आदि तीनों भंगों में आयुष्य बांधते हैं, शेष 23 दण्डक के जीव अप्रत्याख्यान में आयुष्य बांधते हैं।" 1. (क) वियाहपण्यत्तिसुत्तं (भू. पा. टि.) भा. 1, पृ. 246 (ख) भगवतीसूत्र के थोकडे, द्वितीय भाम, थो. नं. 50, पृ. 70-71 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org