________________ 52] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र विशेषार्थ-प्रत्याख्यानी-सर्वविरत, प्रत्याख्यानवाला / अप्रत्याख्यानी = अविरत, प्रत्याख्यानरहित / प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यानी = देशविरत (किसी अंश में प्राणातिपातादि पाप से निवृत्त और किसी अंश में अनिवृत्त / ) प्रत्याख्यान-ज्ञानसूत्र का प्राशय-प्रत्याख्यानादि तीनों का सम्यग्ज्ञान तभी हो सकता है, जब उस जीव में सम्यग्दर्शन हो / इसलिए नारक, चारों निकाय के देव, तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय प्रौर मनुष्य, इन 16 दण्डकों के समनस्क-संज्ञी एवं सम्यग्दष्टि पंचेन्द्रिय जीव ही ज्ञपरिज्ञा से प्रत तीनों को सम्यक् प्रकार से जानते हैं, शेष अमनस्क-प्रसंशी एवं मिथ्यादष्टि (पंचेन्द्रिय मिथ्यात्वी, एकेन्द्रिय एवं विकलेन्द्रिय) प्रत्याख्यानादि तीनों को नहीं जानते / यही इस सूत्र का प्राशय है। प्रत्याख्यानकरणसूत्र का प्राशय--प्रत्याख्यान तभी होता है, जबकि वह किया—स्वीकार किया जाता है / सच्चे अर्थों में प्रत्याख्यान या प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यान वही करता है, जो प्रत्याख्यान एवं प्रत्याख्यानाप्रत्याख्यान को जानता हो। शेष जीव तो अप्रत्याख्यान ही करते हैं / यह इस सूत्र का प्राशय है। प्रत्याख्यानादि निर्तित प्रायुष्यबन्ध का प्राशय-प्रत्याख्यान आदि से आयुष्य बांधे हुए को प्रत्याख्यानादि-निर्वर्तित श्रायुष्यबन्ध कहते हैं। प्रत्याख्यानादि तीनों आयुष्यबन्ध में कारण होते हैं। वैसे तो जीव और वैमानिक देवों में प्रत्याख्यानादि तीनों वाले जीवों की उत्पत्ति होती है। किन्तु प्रत्याख्यान वाले जीवों की उत्पत्ति प्रायः वैमानिकों में, एवं अप्रत्याख्यानी अविरत जीवों की उत्पत्ति प्रायः नरयिक आदि में होती है।' प्रत्याख्यानादि से सम्बन्धित संग्रहणी गाथा 25. गाथापच्चखाणं 1 जाणइ 2 कुब्वति 3 तेणेव आउनिध्यत्ती 4 / सपदेसुद्देसम्मि य एमेए दंडगा चउरो / / 2 // सेवं भते ! सेवं भते ! त्तिः / ॥छ8 सए : चउत्थो उद्देसो समत्तो। [25 गाथार्थ-] प्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान का जानना, करना, तीनों का (जानना, करना), तथा आयुष्य की निर्वृति, इस प्रकार ये चार दण्डक सप्रदेश (नामक चतुर्थ) उद्देशक में कहे गए हैं। / छठा शतक : चतुर्थ उद्देशक समाप्त / / 1. (क) भगवतीसूत्र अ. वृति. पत्रांक 266.267 (ख) भगवती. हिन्दी विवेचन भा. 2, पृ. 297-999 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org