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________________ चउवीसइमं सयं : चौवीसवाँ शतक प्राथमिक * यह व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र का चौवीसवां शतक है / * कतिपय दर्शनों का अभिमत है कि ईश्वर से प्रेरित होकर जीव स्वर्ग या नरक में जाता है / वह चाहे तो जीव को कठोर दण्ड दे सकता है, जीव की गति-मति बदल सकता है। वही सांसारिक जीवों का कर्ता-धर्ता-हर्ता है। परन्तु जैनदर्शन कहता है कि सभी जीव अपने-अपने कर्मों के अनुसार चारों गतियों में से किसी भी गति या योनि में जाता है; उसको शरीर, इन्द्रिय, ज्ञान, अज्ञान, योग, उपयोग, लेश्या, वेद, सुख-दुःख-वेदन, आयुष्य, अध्यवसाय तथा अन्य साधन अपनेअपने शुभाशुभ कर्मों के अनुसार मिलते हैं / अवतार या तीर्थंकर कहलाने वाले महापुरुष भी पूर्वकृत कर्मों को भोगे बिना छूट नहीं सकते। बड़े-बड़े सत्ताधारी, धनपति, विद्यावान्, बलवान् भी कर्मों के चक्कर से छूट नहीं सकते। यह बात दूसरी है कि सम्यग्दृष्टि ज्ञानी पुरुष कर्मों का फल भोगते समय समभाव से भोगते हैं, पुराने कर्मों का क्षय करते हैं, नये कर्मों को पाने से या बंधने से रोकते हैं / परन्तु जब तक कर्मों का विशेषतः घातीकर्मों का क्षय नहीं हो जाता, तब तक व्यक्ति संसार में चारों गतियों, विविध योनियों में भ्रमण करता रहता है / प्राणिमात्र के प्रति परमवत्सल भगवान महावीर ने यही तथ्य समझाने के लिए चौवीस उद्देशकों से युक्त यह शतक प्ररूपित किया है। गणधर श्री गौतम स्वामी को लक्ष्य करके समस्त संसारी जीवों को, विशेषत: मनुष्यों को परोक्ष रूप से यह सबोध दिया है कि अगर जन्म-मरण के चक्र से मुक्त होना हो, उपपात आदि वीस बोलों से छुटकारा पाना हो तो इन सबके मूल शुभ-अशुभ कर्मों से मुक्त होने और ज्ञान-दर्शन-चारित्र-तप द्वारा प्रात्मशुद्धि करने तथा आत्मस्वरूप में रमण करने का प्रयत्न करो। इसी उद्देश्य से प्रस्तुत शतक में चौवीस दण्डकवर्ती समस्त सांसारिक जीवों को लेकर 20 द्वारों के माध्यम से शुभाशुभ कर्मजन्य वीस बोलों का निरूपण किया गया है। प्रत्येक दण्डक के अनुसार एक-एक उद्देशक की रचना की गई है। प्रत्येक दण्डकवर्ती जीव के साथ 20 बोलों का कथन किया गया है। निःसंदेह अात्महितैषी मुमुक्षु जीवों के लिए प्रत्येक उद्देशक मननीय है / जब तक शरीर है, तब तक कुछ शुभ तत्व इनमें से कथंचित् उपादेय भी हैं / * वीस द्वार इस प्रकार हैं--(१) उपपात, (2) परिमाण, (3) संहनन, (4) ऊँचाई (अवगाहना), .... (5) संस्थान, (6) लेश्या, (7) दृष्टि, 1(8) ज्ञान, अज्ञान, (6) योग, (10) उपयोग / (11) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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