________________ अठारहवां शतक : उद्देशक 10] [747 यात्रा आदि की परिभाषा-संयम के विषय में प्रवृत्ति-यात्रा है, मोक्ष की साधना में तत्पर पुरुषों द्वारा, इन्द्रिय आदि की वश्यतारूप धर्म को 'थापनीय' कहते हैं। शारीरिक-मानसिक बाधापीड़ा न होना 'अव्याबाध' है और निर्दोष एवं प्रासुक शयन ग्रासन स्थानादि का ग्रहण-उपभोग करना 'प्रासुकविहार' की परिभाषा है / ' सरिसव-भक्ष्याभक्ष्यविषयक सोमिलप्रश्न का भगवान् द्वारा यथोचित समाधान 24. [1] सरिसवा ते भंते ! कि भक्खया, अभखेया ? सोमिला ! सरिसवा मे भक्खेया वि, प्रभक्खेया वि / [24-1 प्र.] भगवन् ! आपके लिए 'सरिसव' भक्ष्य हैं या अभक्ष्य ? [24-1 उ.] सोमिल ! 'सरिसव' मेरे लिए भक्ष्य भी हैं और अभक्ष्य भी हैं। [2] से केणढणं भंते ! एवं वुच्चइ सरिसवा मे भक्खेया वि, अभक्खेया वि ? से नणं सोमिला ! बंभण्णएसु नएसु दुविहा सरिसवा पण्णत्ता, तं जहा- मित्तसरिसवा य धनसरिसवा य / तत्थ णं जे ते मित्तसरिसवा ते तिविहा पन्नत्ता, तं जहा-सहजायए सहड्डियए सहपंसुकीलियए; ते णं समणाणं निग्गंथाणं अभक्खेया। तत्थ णं जे ते धन्नसरिसवा ते दुविहा पन्नत्ता, तं जहा-सस्थपरिणया य प्रसस्थपरिणया य। तत्थ णं जे ते असत्थपरिणया ते णं समणाणं निग्गंथाणं अमक्खेया / तत्थ णं जे ते सत्थपरिणया ते दुविहा पन्नता, तं जहा-एसणिज्जा य प्रणेसणिज्जा य / तस्थ णं जे ते अणेसणिज्जा ते णं समणाणं निग्गंथाणं अभक्खेया। तत्थ जे ते एसणिज्जा ते दुविहा पन्नत्ता, तं जहा–जाइता य प्रजाइया य। तत्थ णं जे ते अजाइता ते णं समणाणं निग्गंथाणं अभक्खेया / तत्थ णं जे ते जायिया ते दुविहा पन्नत्ता, तं जहा-लद्धा य प्रलद्धा य / तत्थ गंजे ते अलद्धा ते णं समणाणं निग्गेथाणं अभक्खेया / तत्थ गं जे ते लद्धा ते णं समणाणं निग्गंथाणं मक्खेया। से तेण?णं सोमिला ! एवं वुच्चइ जाव प्रभवखेया वि। [24-2 प्र.] भगवन् ! यह आप कैसे कहते हैं कि 'सरिसव' भक्ष्य भी हैं और अभक्ष्य भी ? [24-2 उ.] सोमिल ! तुम्हारे ब्राह्मण नयों (शास्त्रों) में दो प्रकार के 'सरिसव' कहे गए हैं / यथा-(१) मित्र-सरिसव (समान वय वाला मित्र) और धान्य-सरिसव (सर्षप-सरसों) / उनमें से जो मित्र-सरिसव हैं, वह तीन प्रकार के कहे गये हैं, यथा-(१) सहजात (एक साथ जन्मे हुए), (2) सहवर्धित (एक साथ बड़े हुए) और सहपांशुक्रो डित (एक साथ धूल में खेले हुए)। ये तीनों प्रकार के सरिसव श्रमणों निन्थों के लिए अभक्ष्य हैं। उनमें से जो धान्यसरिसव हैं, वह भी दो प्रकार के कहे गये हैं, यथा-शस्त्रपरिणत और प्रशस्त्रपरिणत / जो प्रशस्त्रपरिणत हैं. ये श्रमणानिर्ग्रन्थों के लिए अभक्ष्य हैं / जो शस्त्रपरिणत हैं, वह भी दो प्रकार के हैं, यथा-एषणीय (निर्दोष) और अनेषणीय (सदोष)। अनेषणीय सरिसव तो श्रमण निर्ग्रन्थों के लिए अभक्ष्य हैं / एषणीय - -.. 1. (क) भगवतीविवेचन, पृ. 2759 (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 759 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org