________________ तृतीय शतक : प्राथमिक [253 * चतुर्थ उद्देशक में भावितात्मा अनगार की जानने, देखने एवं विकुर्वणा करने की शक्ति की वायुकाय, मेघ आदि द्वारा रूपपरिणमन व गमनसम्बन्धी चर्चा है। चौबीस दण्डकों की लेश्यासम्बन्धी प्ररूपणा है। * पंचम उद्देशक में भावितात्मा अनगार द्वारा स्त्री आदि रूपों की वैक्रिय एवं अभियोगसम्बन्धी चर्चा है। * छठे उद्देशक में मायी मिथ्यादृष्टि एवं अमायी सम्यग्दृष्टि अनगार द्वारा विकुर्वणा और दर्शन तथा चमरेन्द्रादि के आत्म-रक्षक देवों की संख्या का प्ररूपण है / * सातवें उद्देशक में शकेन्द्र के चारों लोकपालों के विमानस्थान प्रादि से सम्बन्धित वर्णन है / * पाठवें उद्देशक में भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के अधिपतियों का वर्णन है। * नौवें उद्दे शक में पंचेन्द्रिय-विषयों से सम्बन्धित अतिदेशात्मक वर्णन है / * दस उद्देशक में चमरेन्द्र से लेकर अच्युतेन्द्र तक की परिषदा-सम्बन्धी प्ररूपणा है।' 1. (क) वियाहपण्णत्तिसत्तं (मूल पाठ-टिप्पणयुक्त), भा. 1, पृ. 34 से 36 तक ! (ख) श्रीमद्भगवतीमूत्रम् (टीकानुवाद टिप्पणयुक्त), खण्ड----२, पृ. 1-2 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org