________________ कथनः नारकों से विपरीत 53, पृथ्वीकायिक जीवों का महाशरीर और अल्प शरीर 53, पृथ्वीकायिक जीवों की समान वेदना: क्यों और कैसे ? 53, पथ्वीकायिक जीवों में पांचों क्रियाएँ कैसे ? 54, मनुष्यों के प्राहार की विशेषता 54, कुछ पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या 54, सयोग केवली क्रियारहित कैसे 65, लेश्या की अपेक्षा चौबीस दण्डकों में समाहारादि विचार 55, जीवों का संसार-संस्थान-काल एवं अल्पबहत्व 55, चार प्रकार का संसार-संस्थान-काल 55, चारों गतियों के जीवों का संसार-संस्थान-काल: भेद-प्रभेद एवं अल्पबहुत्व 57, संसारसंस्थान-काल सम्बन्धी प्रश्नों का उद्भव क्यों 57, संसार-संस्थान-काल न माना जाए तो? 57, विविध संसारसंस्थान-काल 57, अशुन्यकाल 57, मिश्रकाल 57, शून्य-काल 58, तीनों कालों का अल्पबहत्व 58, तिर्यचों की अपेक्षा अशून्य काल सबसे कम 58, अन्तक्रिया सम्बन्धी चर्चा 58, अन्तक्रिया का अर्थ 58, असंयत भव्य द्रव्यदेव प्रादि सम्बन्धी विचार 58, असंयत भव्य द्रव्यदेव आदि के देवलोक उत्पाद के सम्बन्ध में प्रश्नोत्तर 59, (1) असंयत भव्य द्रव्य देव 59, (2) अविराधित संयमी 60, (3) विराधित संयमी 60, (4) अविराधित संयमासंयमी 60, (5) बिराधित संयमासंयमी 60, (6) असंही जीव 60, (7) तापस 60, (8) कांदर्पिक 60, (9) चरक परिव्राजक 60, (10) किल्विषिक 60, (11) तिर्यच 60, (12) प्राजीविक 61, (13) आभियोगिक 61, (14) दर्शनभ्रष्ट सलिंगी 61, असंजी-आयुष्य सम्बन्धी प्रश्नोत्तर 61, असंज्ञी-अायुष्यः प्रकार, उपार्जन एवं अल्पबहुत्व 62, असंही द्वारा आयुष्य का उपार्जन या वेदन ? 62 / तृतीय उद्देशक---कांक्षा-प्रदोष (सूत्र 1-15) 64-80 चौबीस दण्डकों में कांक्षामोहनीयकर्म सम्बन्धी षडद्वार विचार 64, कांक्षामोहनीयवेदन कारण विचार 65, चतुविशति दण्डकों में कांक्षा-मोहनीय का कृत, चित प्रादि छह द्वारों से त्रैकालिक विचार 66, कांक्षामोहनीय 66, कांक्षामोहनीय का ग्रहणः कैसे, किस रूप में 66, कर्मनिष्पादन की क्रिया त्रिकाल-सम्बन्धित 67, चित आदि का स्वरूपः प्रस्तुत सन्दर्भ में 67, उदीरणा आदि में सिर्फ तीन प्रकार का काल 7. उदयप्राप्त कांक्षामोहनीय का वेदन 67, शंका आदि पदों की व्याख्या 67, कांक्षामोहनीय को हटाने का प्रबल कारण 68, 'जिन' शब्द का अर्थ 68, अस्तित्व-नास्तित्व-परिणमन चर्चा 68, अस्तित्व-नास्तित्व की परिणति और गमनीयता आदि का विचार 69, अस्तित्व की अस्तित्व में मोर नास्तित्व को नास्तित्व में परिणतिः व्याख्या 69, वस्तु में अस्तित्व और नास्तित्व दोनों धर्मों की विद्यमानता 70, नास्तित्व की नास्तित्व-रूप में परिणतिः व्याख्या 70, पदार्थों के परिणमन के प्रकार 71, गमनीयरूप प्रश्न का प्राशय 71, 'एत्थं' और 'इह प्रश्न सम्बन्धी सूत्र का तात्पर्य 71, कांक्षामोहनीय कर्मबन्ध के कारणों की परम्परा 71, बन्ध के कारण पूछने का आशय 72, कर्मबन्ध के कारण 73, शरीर का कर्ता कौन ? 73, उत्थान आदि का स्वरूप 73, शरीर से वीर्य की उत्पत्तिः एक समाधान 73, कांक्षामोहनीय की उदीरणा, गहीं प्रादि से सम्बन्धित प्रश्नोत्तर 73, कांक्षामोहनीय कर्म की उदीरणा, गो, संवर, उपशम वेदन, निर्जरा आदि से सम्बन्धित प्रश्नोत्तर 75, उदीरणा: कुछ शंका समाधान 75, गहरे आदि का स्वरूप 76, वेदना और नहीं 76, कर्म सम्बन्धी चतुभंगी 76, चौबीस दण्डकों तथा श्रमणों के कांक्षामोहनीय वेदन सम्बन्धी प्रश्नोत्तर 77, पृथ्वीकाय कर्मवेदन कैसे करते हैं ? 78, तर्क आदि का स्वरूप 78, शेष दण्डकों में कांक्षामोहनीय कर्मवेदन 79, श्रमण-निर्ग्रन्थ को भी कांक्षामोहनीय कर्मवेदन 79, ज्ञानान्तर 79, दर्शनान्तर 79, चारित्रान्तर 79, लिंगान्तर 80, प्रवचनान्तर 80, प्रावच निकान्तर 80, कल्पान्तर 80, मार्गान्तर 80, मतान्तर 80, भंगान्तर 80, नयान्तर 80, नियमान्तर 80, प्रमाणान्तर० / [ 27 ] . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org