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________________ चतुर्थ उद्देशक- (कर्म) प्रकृति (सूत्र 1.18) 81-89 कर्मप्रकृतियों से सम्बन्धित निर्देश 81, कर्म और आत्मा का सम्बन्ध 81, उदीर्ण-उपशान्तमोह जीव के सम्बन्ध में उपस्थान-उपक्रमणादि प्ररूपण 84, मोहनीय का प्रासंगिक अर्थ 83. 'वीरियत्ताए' शब्द का प्राशय, विविध वीर्य 83, उपस्थान क्रिया और अपक्रमण क्रिया 84, मोहनीय कर्म वेदते हुए भी अपक्रमण क्यों ? 84, कृतकर्म भोगे बिना मोक्ष नहीं 84, प्रदेशकर्म 85, अनुभाग कर्म 85, प्राभ्युपगमिकी वेदना का अर्थ 85, औपक्रमिकी वेदना का अर्थ 86, यथाकर्म, यथा निकरण का अर्थ 86, पापकर्म का आशय 86, पुद्गल, स्कन्ध और जीव के सम्बन्ध में त्रिकाल शाश्वत प्ररूपणा 86, वर्तमान काल को शाश्वत कहने का कारण 87, पुदगल का प्रासंगिक अर्थ 87, छदमस्थ मनुष्य की मुक्ति से सम्बन्धित प्रश्नोत्तर, केवली की मुक्ति से सम्बन्धित प्रश्नोत्तर 88, 'छदमस्थ' का अर्थ 89, अाधोऽवधि एवं परमावधि ज्ञान 89 / पंचम उद्देशक-पृथ्वी (सूत्र 1.36) 60-106 चौबीस दण्डकों की आवास संख्या का निरूपण 90, अर्थाधिकार 91, नारकों के क्रोधोपयुक्त आदि निरूपणपूर्वक प्रथम स्थिति स्थानद्वार 91, (नारकों की) जयन्यादि स्थिति 93, 'समय' का लक्षण 93, अस्सी भंग 94, नारकों के कहाँ, कितने भंग? 94, द्वितीय----अवगाहना द्वार 94, अवगाहना स्थान 95, उत्कृष्ट अवगाहना 95, जधन्य स्थिति तथा जघन्य अवगाहना के भंगों में अन्तर क्यों? 95, ततीय-शरीरद्वार 95, शरीर 96 बैंक्रिय शरीर 96, तैजस शरीर 96, कार्मण शरीर 96, चौथा—संहनन द्वार 96, पांचवां--संस्थान द्वार 97, उत्तर वैक्रिय शरीर 97, छठा-लेश्याद्वार 98, सातवाँ-दष्टिद्वार 98, आठवाँ-ज्ञानद्वार 99, दृष्टि 99, तीनों दृष्टियों वाले नारकों में क्रोधोपयुक्तादि भंग 99, तीन ज्ञान और तीन अज्ञान वाले नारक कौन और कैसे ? 100, ज्ञान और अज्ञान 100, नौवा–योगद्वार 100, दसवाँ-उपयोगद्वार 101, नारकों का क्रोधोपयुक्तादि निरूपण पूर्वक तौवा एवं दसवाँ योग-उपयोगद्वार 101, योग का अर्थ 101, उपयोग का अर्थ 101, ग्यारहवाँ–लेश्याद्वार लेश्या के सिवाय सातों नरकपथ्वियों में शेष नौ द्वारों में समानता 102, भवनपतियों की क्रोधोपयुक्तादि वक्तव्यक्तापूर्वक स्थिति आदि दस द्वार 102, एकेन्द्रियों की क्रोधोपयुक्त प्ररूपणापूर्वक स्थिति आदि द्वार 102, विकलेन्द्रियों के क्रोधोपयुतादि निरूपणपूर्वक स्थिति आदि विकलान्द्रया क क्राधापयुतादि निरूपणपूर्वक स्थिति आदि दस द्वार 103, तिथंच पंचेन्द्रियों के क्रोधोपयुक्तादि कथनपूर्वक दस द्वार निरूपण 103, मनुष्यों के क्रोधपयुक्तादि निरूपणपूर्वक दस द्वार 104, वाणव्यंतरों के क्रोधोपयुक्तयूर्वक दसद्वार 104, भवनपति से लेकर वैमानिक देवों तक के क्रोधोपयुक्त आदि भंग निरूपणपूर्वक स्थितिअवगहना आदि दस द्वार प्ररूपण 103, भवनपति देवों की प्रकृति नारकों की प्रकृति से भिन्न 104, असंयोगी एक भंग 105, द्विक संयोगी छह भंग 195, त्रिक संयोगी बारह भंग 105, चतुःसंयोगी 8 भंग 105, अन्य द्वारों में अन्तर 105, पश्वीकायादि के दश द्वार और क्रोधादियुक्त के भंग 105, विकलेन्द्रिय जीवों से नारकों में अन्तर 105, तिर्यंच पंचेन्द्रिय जीवों और नारकों में अन्तर 106, मनुष्यों और नारकों के कथन में अन्तर 106, चारों देवों सम्बन्धी कथन में अन्तर 106 / छठा उद्देशक-यावन्त (सूत्र 1-27) 107-120 सूर्य के उदयास्त क्षेत्र स्पर्शादि सम्बन्धी प्ररूपणा 107, सूर्य कितनी दूर से दिखता है और क्यों ? 108, विशिष्ट पदों के अर्थ 109, सूर्य द्वारा क्षेत्र का अबभासादि 109, लोकान्त-अलोकान्तादि स्पर्श प्रषणा 109, लोक-अलोक 110, चौबीस दण्डकों में अठारह-पाप-स्थान-क्रिया-स्पर्श प्ररूपणा 110, प्राणातिपातादि क्रिया के सम्बन्ध में निष्कर्ष 112, कुछ शब्दों की व्याख्या 112, रोह अनगार का वर्णन 112, रोह अनगार और भगवान [28] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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