________________ सप्तम शतक : उद्देशक-९ ] [185 [12 उ.] गौतम ! महाशिलाकण्टक-संग्राम में चौरासी लाख मनुष्य मारे गए। 13. ते णं भंते ! मणुया निस्सीला जाव निप्पच्चक्खाणपोसहोववासा सारुट्ठा परिकुविया समरवाहिया अणुवसंता कालमासे कालं किच्चा कहिं गता ? कहिं उववन्ना? गोयमा ! श्रोसन्नं नरग-तिरिक्खजोणिएसु उववन्ना। [13 प्र.] भगवन् ! शीलरहित यावत् प्रत्याख्यान एवं पौषधोवास से रहित, रोष (आवेश) में भरे हुए, परिकुपित, युद्ध में घायल हुए और अनुपशान्त वे (युद्ध करने वाले) मनुष्य मृत्यु के समय मर कर कहाँ गए, कहाँ उत्पन्न हुए ? [13 उ.] गौतम ! ऐसे मनुष्य प्राय: नरक और तिर्यञ्चयोनियों में उत्पन्न हुए हैं। विवेचन--महाशिलाकण्टक-संग्राम के स्वरूप, उसमें मानवविनाश एवं उनकी मरणोत्तरगति का निरूपण-प्रस्तुत तीन सूत्रों (सू. 11 से 13 तक) में महाशिलाकण्टक के स्वरूप तथा उसमें मृत मानवों की संख्या एवं उनकी गति के विषय में किये गए प्रश्नों का समाधान अंकित किया गया है। फलितार्थ-युद्ध में धन, जन, संस्कृति और संतति के विनाश के अतिरिक्त सबसे बड़ी हानि शासकों द्वारा अपने अहंपोषण, राज्यविस्तार, वैभवप्राप्ति या ईर्ष्या को चरितार्थ करने के लिए युद्ध में झोंके हुए सैनिकों के अज्ञानवश, आवेशवश एवं त्याग-प्रत्याख्यानरहित मरण के कारण दुर्गति की प्राप्ति, मानव जैसे अमूल्य जन्म की असफलता है। रथमूसलसंग्राम में जय-पराजय का, उसके स्वरूप का, तथा उसमें मृत मनुष्यों की संख्या, गति आदि का निरूपण 14 णायमेतं प्ररया, सुतमेतं अरहता, विण्णायमेतं प्ररहता रहमुसले संगामे रहमुसले संगामे / रहमुसले णं भंते ! संगामे वट्टमाणे के जइत्था ? के पराजइत्था ? गोयमा ! वज्जो विदेहयुत्ते चमरे य प्रसुरिंदे असुरकुमारराया जइत्था, नव मल्लई नव लेच्छई पराजइत्था। [14 प्र.] भगवन् ! अर्हन्त भगवान ने जाना है, इसे प्रत्यक्ष किया है और विशेषरूप से जाना है कि यह रथमूसलसंग्राम है। (अत: मेरा प्रश्न यह है कि) भगवन् ! यह रथमूसलसंग्राम जब हो रहा था, तब कौन जीता, कौन हारा ? [14 उ.] हे गौतम (वज्जी गण या वंश का विदेहपुत्र या) वनी-इन्द्र और विदेहपुत्र (कणिक) एवं असुरेन्द्र असुरराज चमर जीते और नौ मल्लको और नौ लिच्छवी (ये अठारह गण) राजा हार गए। 15. तए णं से कूणिए राया रहमुसलं संगामं उद्वितं०, सेसं जहा महासिलाकंटए. नवरं भूताणंदे हस्थिराया जाव रहमसलं संगामं सोयाए, पुरतो य से सक्के देविवे देवराया / एवं तहेव जाव चिट्ठति, मागतोय से चमरे असुरिंदे असुरकुमारराया एगं महं प्रायस किढिणपडिरूवर्ग विउवित्ताणं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org