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________________ द्वितीय शतक : उद्देशक-१० ] [ 251 [22] जिस तरह धर्मास्तिकाय को स्पर्शना कहो, उसी तरह अधर्मास्तिकाय और लोकाकाशास्तिकाय को स्पर्शना के विषय में भी कहना चाहिए। गाथा का अर्थ इस प्रकार है पृथ्वी, घनोदधि, धनवात, तनुवात, कल्प, वेयक, अनुत्तर, सिद्धि (ईषत्प्रारभारा पृथ्वी) तथा सात अवकाशान्त र, इनमें से अवकाशान्तर तो धर्मास्तिकाय के संख्येय भाग का स्पर्श करते हैं और शेष सब धर्मास्तिकाय के असंख्येय भाग का स्पर्श करते है। विवेचन-धर्मास्तिकायादि की स्पर्शना-प्रस्तुत नौ सूत्रों (14 से 22 तक) में तीनों लोक, रत्नप्रभादि सात प्रथ्वियाँ, उन सातों के धनोदधि, घनवात, तनुवात, अवकाशान्तर, सौधर्मकल्प से ईषत्प्रारभारा पृथ्वी तक धर्मास्तिकायादि के संख्येय, या असंख्येय तथा समग्र आदि भाग के स्पर्श का विचार किया गया है। तीनों लोकों द्वारा धर्मास्तिकाय का स्पर्श कितना और क्यों ? -धर्मास्तिकाय चतुर्दशरज्जुप्रमाण समग्न लोकव्यापी है और अधोलोक का परिमाण सात रज्जु से कुछ अधिक है। इसलिए अधोलोक धर्मास्तिकाय के प्राधे से कुछ अधिक भाग का स्पर्श करता है। तियग्लोक का परिमाण 1800 योजन है और धर्मास्तिकाय का परिमाण असंख्येय योजन का है। इसलिए तिर्यग्लोक धर्मास्तिकाय के असंख्येय भाग का स्पर्श करता है। ऊर्बलोक देशोन सात रज्जपरिमाण है और धर्मास्तिकाय चौदह रज्जु-परिमाण है / इसलिए ऊर्ध्व लोक धर्मास्तिकाय के देशोन अर्धभाग का स्पर्श करता है। वत्तिकार के अनुसार 52 सूत्र--यहाँ रत्नप्रभा आदि प्रत्येक पृथ्वी के विषय में पांच-पाँच मूत्र होते हैं (यथा-रत्नप्रभा, उसका घनोदधि, घनवात, तनुवात और अवकाशान्तर) / इस दृष्टि से सातों पृथ्वियों के कुल 35 सूत्र हुए / बारह देवलोक के विषय में बारह सूत्र, गं वेयकत्रिक के विषय में तीन सूत्र, अनुत्तरविमान और ईषत्प्राम्भारा पृथ्वी के विषय में दो सूत्र, इस प्रकार सब मिलाकर 35+12+3+2=52 सूत्र होते हैं। इन सभी सूत्रों में--'क्या धर्मास्तिकाय के संख्येय भाग को स्पर्श करता है ?... यावत् सम्पूर्ण धर्मास्तिकाय को स्पर्श करता है ?' इस प्रकार कहना चाहिए / इस प्रश्न का उत्तर यह है-'सभी अवकाशान्तर धर्मास्तिकाय के संख्येय भाग को और शेष सभी असंख्येय भाग को स्पर्श करते हैं।' अधर्मास्तिकाय प्रौर लोकाकाशास्तिकाय के विषय में भी इसी तरह सूत्र (पालापक) कहने चाहिए / // द्वितीय शतक : दशम उद्देशक समाप्त // // द्वितीय शतक सम्पूर्ण // 1. भगवतीमूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 152 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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