________________ 250 ] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 16. [1] इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए प्रोवासंतरे धम्मस्थिकायस्स कि संखेन्जइ. मागं फुसति, असंखेज्जइभागं फुसइ जाव (सु. 17) सन्वं फुसइ। गोयमा ! संखेज्जइभागं फुसइ, णो असंखेज्जेइभाग फुसइ, मोसंखेज्जे०, नो असंखेज्जे०, नो सव्वं फुसइ। [16-1 प्र.] भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी का अवकाशान्तर क्या धर्मास्तिकाय के संख्येय भाग को स्पर्श करता है, अथवा असंख्येय भाग कोस्पर्श करता है?, यावत् सम्पूर्ण धर्मास्तिकाय को स्पर्श करता है ? [19-1 उ.] गौतम ! इस रत्नप्रभापृथ्वी का अवकाशान्तर, धर्मास्तिकाय के संख्येय भाग को स्पर्श करता है, किन्तु असंख्येय भाग को, संख्येय भागों को, असंख्येय भागों को तथा सम्पूर्ण धर्मास्तिकाय को स्पर्श नहीं करता / [2] अोवासंतराइं सम्वाई जहा रयणप्पभाए। [16-2] इसी तरह समस्त अवकाशान्तरों के सम्बन्ध में कहना चाहिए / 20. जहा रयणप्पभाए पुढवीए वत्तव्वया भगिया एवं जाव' अहेसत्तमाए / [20] जैसे रत्नप्रभा पृथ्वी के विषय में कहा, वैसे ही यावत् नीचे सातवीं पृथ्वी तक कहना चाहिए। 21. [जंबुदीवाइया दीवा, लवणसमुद्दाइया समुद्दा] 2 एवं सोहम्मे कप्पे जाव' ईसिपब्भारापुढवीए / एते सच्चे वि असंखेज्जइ भागं फुसति, सेसा पडिसेहेतब्वा / [21] [तथा जम्बूद्वीप प्रादि द्वीप और लवणसमुद्र आदि समुद्र, सौधर्मकल्प से ले कर (यावत् ईषत् प्रागभारा पृथ्वी तक, ये सभी धर्मास्तिकाय के असंख्येय भाग को स्पर्श करते हैं। शेष भागों को स्पर्शना का निषेध करना चाहिए। 22. एवं अधम्मस्थिकाए / एवं लोयागासे वि / गाहा-- पुढबोदही घण तणू कप्पा गेवेज्जऽणुत्तरा सिद्धी। संखेज्जइभागं अंतरेसु सेसा असंखेज्जा // 1 // // बितीय-सए दसमो उद्देसो समत्तो॥ / बिइयं सयं समतं / / 1. 'जाव' पद से शर्कराप्रभा आदि सातों नरकवियों के नाम समझ लेने चाहिए। 2. वृत्तिकार द्वारा 52 सूत्रों की सूचना के अनुसार यहाँ 'जंबुद्दीवाइया समुद्दा' यह पाठ संगत नहीं लगता, इसलिए प्राकेट में दिया गया है। 3. 'जाव' पद से 'ईशान' से लेकर 'ईषाप्राभारा पृथ्वी' तक समझ लेना चाहिए। . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org