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________________ चौदहवाँ शतक] [471 (गोशालक ने श्रमण-निर्ग्रन्थों के प्रति) मिथ्यात्व (अनार्यत्व) को विशेष रूप से अंगीकार कर लिया है। विवेचन----प्रस्तुत सूत्र में भगवान द्वारा प्रानन्द स्थविर के माध्यम से गोशालक के सम्बन्ध में श्रमण-निर्ग्रन्थों के लिए दी गई चेतावनी का वर्णन है। भगवान के समक्ष गोशालक द्वारा अपनी ऊटपटांग मान्यता का निरूपण 68. जावं च णं आणंदे थेरे गोयमाईणं समणाणं निग्गंथाणं एयम परिकहेति तावं च णं से गोसाले मंखलिपुत्त हालाहलाए कुभकारोए कुभकारावणाश्रो पडिनिक्खमति, पडि० 2 आजीवियसंघसंपरिडे महया अमरिसं वहमागे सिग्धं तुरियं जाव सात्थि नगरि मज्झमझेणं निग्गच्छति, नि० 2 जेणेव कोढए चेतिए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति, ते० उ० 2 समणस्स भगवतो महावीरस्स अदूरसामंते ठिच्चा समणं भगवं महावीरं एवं वदासी "सुठ्ठणं पाउसो! कासवा! ममं एवं वदासी, साहुणं पाउसो! कासवा! ममं एवं वदासी-'गोसाले मंलिपुत्ते ममं धम्मतवासी, गोसाले मंखलिपुत्ते मम धम्मंतेवासी / जे णं से गोसाले मंखलिपुत्ते तव धम्मतेवासी से णं सुक्क सुक्काभिजाइए भवित्ता कालमासे कालं किच्चा अन्नयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववन्ने / अहं णं उदाई नामं कुडियायणिए / अज्जुणस्स गोयमपुत्तस्स सरीरगं विष्पजहामि, अज्जु० विप्प० 2 गोसालस्स मंखलिपुत्सस्स सरोरगं अणुप्पविसामि, गो० अणु० 2 इमं सत्तमं पउट्टपरिहारं परिहरामि / "जे वि याइं आउसो ! कासवा ! अम्ह समयसि केयि सिज्मिसु वा सिझति वा सिन्झिस्संति वा सव्वे ते चउरासोति महाकम्पसयसहस्साइं सत्त दिन्वे सत्त संजूहे सत्त सन्निगन्भे सत्त पउट्टपरिहारे पंच कम्मुणि सयसहस्साई सट्ठि च सहस्साई छच्च सए तिणि य कम्मसे अणुपुत्वेणं खवइत्ता तओ पच्छा सिझंति, बुझंति, मुच्चंति, परिनिव्वाइति सम्वदुक्खाणमंतं करेंसु वा, करेंति वा, करिस्संति वा। __ "से जहा वा गंगा महानदी जतो पवढा, जहि वा पज्जुबत्थिता, एस णं प्रद्धा पंच जोयणसताई आयामेणं, अद्धजोयणं विक्खंभेणं, पंच धणुसयाई ओवेहेणं, एएणं गंगापमाणेणं सत्त गंगाओ सा एगा महागंगा, सत्त महागंगाओ सा एगा साईणगंगा, सत्त सादीणगंगाओ सा एगा मड्डगंगा, सत्त मडगंगाओ सा एगा लोहियगंगा, सत्त लोहियगंगाओ सा एगा प्रावतीगंगा, सत्त आवतीगंगानो सा एगा परमावती, एवामेव सपुवावरेणं एगं गंगासयसहस्सं सत्तरस य सहस्सा छच्च अगुणपन्न गंगासता भवंतीति मक्खाया / तासि दुविहे उद्धारे पन्नते, तं जहा--सुहमबोदिकलेवरे चेव, बादरबोंदिकलेवरे चेव / तत्थ णं जे से सुहमबोंदिकलेवरे से ठप्पे / तत्थ गंजे से बादरबोंदिकलेवरे ततो णं वाससते गते वाससते गते एगमेगं गंगावालुयं अवहाय जावतिएणं कालेणं से कोठे खोणे णीरए निल्लेवे निट्ठिए भवति से तं सरे सरप्पमाणे / एएणं सरप्पमाणेणं तिष्णि सरसयसाहस्सोओ से एगे महाकप्पे / चउरासीति महाकप्पसयसयसहस्साइं से एगे महामाणसे ! अणंतातो संजू हातो जीवे चयं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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