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________________ पच्चीसवां शतक : उद्देशक 16.3 और कार्मण शरीर में होता है और पांच शरीरों में हो तो औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तेजस और कार्मण शरीर में होता है। 64. णियंठे सिणाते य जहा पुलाओ। [दारं 10] / [64] निर्ग्रन्थ और स्नातक का शरीरविषयक कथन पुलाक के समान जानना चाहिए। [दसवाँ द्वार] विवेचन-शरीर : किसमें कितने ? प्रस्तुत शरीरद्वार में, पुलाक में तथा निर्ग्रन्थ और स्नातक में औदारिकादि तीन शरीर, बकुश तथा प्रतिसेवनाकुशील में तीन या चार शरीर (वैक्रिय अधिक) तथा कषायकुशील में तीन, चार या पांच (आहारकशरीर अधिक) शरीर होते हैं।' ग्यारहवाँ क्षेत्रद्वार : पंचविध निर्ग्रन्थों में कर्मभूमि-अकर्मभूमि-प्ररूपणा 65. पुलाए णं भंते ! कि कम्मभूमीए होज्जा, अकम्मभूमीए होज्जा ? गोयमा ! जम्मण-संतिभावं पडुच्च कम्मभूमीए होज्जा, नो अकम्मभूमीए होज्जा। [65 प्र. भगवन् ! पुलाक कर्मभूमि में होता है या अकर्मभूमि में ? [65 उ.] गौतम ! जन्म और सद्भाव (अस्तित्व) की अपेक्षा कर्मभूमि में होता है, अकर्मभूमि में नहीं। 66. बउसे पं० पुच्छा। गोयमा ! जम्मण-संतिभावं पडुच्च कम्मभूमोए होज्जा, नो प्रकम्मभूमीए होज्जा / साहरणं पञ्चच कम्मभूमीए बा होज्जा, अकम्मभूमीए वा होज्जा। [66 प्र.] बकुश के विषय में पृच्छा ? [66 उ.] गौतम ! जन्म और सद्भाव से कर्मभूमि में होता है, अकर्मभूमि में नहीं / संहरण की अपेक्षा कर्मभूमि में भी और अकर्मभूमि में भी होता है। 67. एवं जाव सिणाए / [दारं 11] / [67] इसी प्रकार (बकुश से लेकर) यावत् स्नातक तक कहना चाहिए / [ग्यारहवाँ द्वार विवेचन–जहाँ असि, मसि और कृषि द्वारा आजीविका की जाती हो तथा जहाँ तप, संयम आदि आध्यात्मिक अनुष्ठान होते हैं, उसे 'कर्मभूमि' कहते हैं, तथा जहाँ असि, मसि, कृषि प्रादि द्वारा जीविकोपार्जन न किया जाता हो और जहाँ तप, संयमादि प्राध्यात्मिक साधना न की जाती हो, उसे अकर्मभूमि कहते हैं / पांच भरत, पांच ऐरवत और पांच महाविदेह, ये 15 क्षेत्र कर्मभूमिक हैं और 5 हैमवत, 5 हिरण्यवत, 5 हरिवर्ष, 5 रम्यक्वर्ष, 5 देवकुरु और 5 उत्तरकुरु ये कुल तीस क्षेत्र अकर्मभुमिक हैं। इनमें असि, मसि प्रादि व्यापार नहीं होता। इन क्षेत्रों में 10 प्रकार के कल्पवृक्षों से जीवननिर्वाह होता है / आजीविका के लिए कृषि प्रादि कर्म न करने से और कल्पवृक्षों द्वारा भोग प्राप्त होने से इन क्षेत्रों को भोगभूमि भी कहते हैं / यहाँ के मनुष्यों को 'भोगभूमिज' तथा जोड़े से जन्म लेने के कारण यौगलिक (जुगलिया) कहते हैं।' 1. विवाहपष्णत्तिसुत्तं भा. 2, पृ. 1024 2. भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 7, पृ. 3369 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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