________________ | व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र पर्वत), शिखरी (चोटी वाले पर्वत), एवं प्राग्भार (थोड़े से झुके पर्वत के प्रदेश) परिगृहीत (ममतापूर्वक ग्रहण किये हुए) होते हैं। इसी प्रकार जल, स्थल, बिल, गुफा, लयन (पहाड़ खोद कर बनाए हुए पर्वतगृह) भी परिगृहीत होते हैं। उनके द्वारा उज्झर (पर्वततट से नीचे गिरने वाला जलप्रपात), निर्भर (पर्वत से बहने वाला जलस्रोत-झरना), चिल्लल (कीचड़ मिला हुआ पानी या जलाशय), पल्लल (प्रल्हाददायक जलाशय) तथा वप्रीग (क्यारियों वाला जलस्थान अथवा तटप्रदेश) परिगृहोत होते हैं। उनके द्वारा कूप, तडाग (तालाब), द्रह (झील या जलाशय), नदी, वापी (चोकोन बावड़ी), पुष्करिणी (गोल बावड़ी या कमलों से युक्त बावड़ी), दीपिका (हौज या लम्बी बावड़ी), सरोवर, सर-पंक्ति (सरोवरश्रेणी), सरसरपंक्ति (एक सरोवर से दूसरे सरोवर में पानी जाने का नाला), एवं बिलपंक्ति (बिलों की श्रेणी) परिग्रहीत होते हैं। तथा आराम (लतामण्डप आदि से सुशोभित परिवार के आमोद-प्रमोद का स्थान), उद्यान (सार्वजनिक बगीचा), कानन (सामान्य वृक्षों से युक्त ग्राम के निकट-वर्ती वन), वन (गाँव से दूर स्थित जंगल), वनखण्ड (एक ही जाति के वृक्षों से युक्त वन), वनराजि (वृक्षों की पंक्ति), ये सब परिगृहीत किये हुए होते हैं। फिर देवकुल (देवमन्दिर), सभा, आश्रम, प्रपा (प्याऊ), स्तंभ (खम्भा या स्तूप), खाई, परिखा (ऊपर और नीचे समान खोदी हुई खाई), ये भी परिगृहीत की होती हैं; तथा प्राकार (किला), अट्टालक (अटारी), या किले पर बनाया हुआ मकान अथवा झरोखा), चरिका (घर और किले के बीच में हाथी आदि के जाने का मार्ग), द्वार, गोपुर (नगरद्वार), ये सब परिगृहीत किये होते हैं। इनके द्वारा प्रासाद (देवभवन या राजमहल), घर, सरण (झौंपड़ा), लयन (पर्वतगृह), आपण (दुकान) परिगृहीत किये जाते हैं / शृगाटक (सिंघाड़े के आकार का A त्रिकोण मार्ग), त्रिक (तीन मार्ग मिलते हैं। ऐसा स्थान), चतुष्क (चौक--जहाँ चार मार्ग मिलते हैं); चत्वर (जहाँ सब मार्ग मिलते हों ऐसा स्थान, या प्रांगन), चतुर्मुख (चार द्वारों वाला मकान या देवालय), महापथ (राजमार्ग या चौड़ी सड़क) पारग्रा रथ, यान (सवारी या वाहन), युग्य (युगल हाथ प्रमाण एक प्रकार की पालखी), गिल्ली (अम्बाड़ी), थिल्ली (घोड़े का पलान-काठी), शिविका (पालखी या डोली), स्यन्दमानिका (म्याना या सुखपालकी) आदि परिगृहीत किये होते हैं / लौही (लोहे की दाल-भात पकाने की देगची या बटलोई), लोहे की कड़ाही, कुड़छी आदि चीजें परिग्रहरूप में गृहीत होती हैं। इनके द्वारा भवन (भवनपति देवों के निवासस्थान) भी परिगृहीत होते हैं। (इनके अतिरिक्त) देवदेवियाँ, मनुष्यनर नारियाँ, एवं तिर्यंच नर-मादाएँ, प्रासन, शयन, खण्ड (टुकड़ा), भाण्ड (बर्तन या किराने का सामान) एवं सचित्त, अचित्त और मिश्र द्रव्य परिग्रहीत होते हैं। इस कारण से ये पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीव प्रारम्भ और परिग्रह से युक्त होते हैं, किन्तु अनारम्भी-अपरिग्रही नहीं होते / 35. जहा तिरिक्खजोणिया तहा मणुस्सा वि भाणियब्वा / [35] जिस प्रकार तिर्यञ्चपञ्चेन्द्रिय जीवों के (सारम्भ सपरिग्रह होने के) विषय में कहा, उसी प्रकार मनुष्यों के विषय में भी कहना चाहिए। 36. वाणमंतर-जोतिस-वेमाणिया जहा भवणवासी तहा नेयम्वा / [36] जिस प्रकार भवनवासी देवों के विषय में कहा, वैसे ही वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के (आरम्भ-परिग्रहयुक्त होने के) विषय में (सहेतुक) कहना चाहिए / TI Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org