________________ पंचम शतक : उद्देशक-७] [ 453 [32] जिस तरह नैरयिकों के (सारम्भ-सपरिग्रह होने के) विषय में कहा है, उसी तरह (पृथ्वीकायादि) एकेन्द्रियों के विषय में कहना चाहिए / 33. [1] बेइंदिया णं भंते ! कि सारंभा सपरिग्गहा ? तं चेव जाब सरोरा परिगहिया भवंति, बाहरिया भंडमत्तोषगरणा परि० भवंति, सचित्तअचित्त० जाव भवंति। [33-1 प्र.] भगवन् ! द्वीन्द्रिय जीव क्या सारम्भ-सपरिग्रह होते हैं, अथवा अनारम्भी एवं अपरिग्रही होते हैं ? [33-1 उ.] गौतम ! द्वीन्द्रिय जीव भी प्रारम्भ-परिग्रह से युक्त हैं, वे अनारम्भी-अपरिगृही नहीं हैं। इसका कारण भी वही पूर्वोक्त है। (वे षटकाय का प्रारम्भ करते हैं तथा यावत उन्होंने शरीर परिग्रहीत किये हुए हैं, उनके बाह्य भाण्ड (मिट्टी के बर्तन), मात्रक (कांसे प्रादि धातुओं के पात्र) तथा विविध उपकरण परिगृहीत किये हुए होते हैं; एवं सचित्त, अचित्त तथा. मिश्र द्रव्य भी परिगृहीत किये हुए होते हैं / इसलिए वे यावत् अनारम्भी, अपरिग्रही नहीं होते / [2] एवं जाव चरिदिया। [33-2] इसी प्रकार त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों के विषय में कहना चाहिए / 34. पंचिदियतिरिक्खजोणिया णं भंते ? तं चेव जाव कम्मा परिग्गहिया भवति, टंका कूडा सेला सिहरी पाभारा परिम्गहिया भवंति, जल-थल-बिल-गुह-लेणा परिग्गहिया भवंति, उज्झर-निज्झर-चिल्लल-पल्लल-वप्पिणा परिग्गहिया भवंति, अगड-तडाग-दह-नदोश्रो वावि-पुक्खरिणी-दीहिया गुजालिया सरा सरपंतियानो सरसरपंतियानो बिलपंतियानो परिग्गहियानो भवंति, पाराम-उज्जाणा काणणा वणाई वणसंडाई वणराईयो परिम्गहियानो भवंति, देवउल-सभा-पवा-थूभा खातिय-परिखानो परिग्गहियानो भवंति, पागारट्टालग-चरिया-दार गोपुरा परिग्गहिया भवंति, पासाद-घर-सरण-लेण-प्रावणा परिग्गहिता भवंति, सिंघाडग-तिग-चउक्क-चच्चर-चउम्मुह-महापहा परिगह्यिा भवंति, सगड-रह-जाण-जुग्ग-गिल्लिथिल्लि-सीय-संदमाणियानो परिगहियात्रो भवंति, लोही-लोहकडाह-कडच्छुया परिग्गहिया भवंति. भवणा परिग्गहिया भवंति, देवा देवीनो मणुस्सा चित्ताचित्त मणुस्सीमो तिरिक्खजोणिया तिरिक्खजोणिणोप्रो पासण-सयण-खंभ-भंड-सचित्ताचित्त-मोसयाई दवाई परिग्गहियाई भवंति; से तेण?णं० / [34 प्र.] भगवन् ! पञ्चेन्द्रिय तिर्यम्योनिक जीव क्या प्रारम्भ-परिग्रहयुक्त हैं, अथवा प्रारम्भ-परिग्रहरहित हैं ? [34 उ.] गौतम ! पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिक जीव, प्रारम्भ-परिग्रह-युक्त हैं, किन्तु आरम्भपरिग्रहरहित नहीं है। क्योंकि उन्होंने शरीर यावत् कर्म परिगृहीत किये हैं / तथा उनके टंक (पर्वत से विच्छिन्न टुकड़ा), कूट (शिखर अथवा उनके हाथी आदि को बांधने के स्थान), शैल (मुण्ड Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org