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________________ अठारहवां शतक : उद्देशक 10] [17] जब सोमिल ब्राह्मण को भगवान् महावीर स्वामी के आगमन की बात मालूम हुई तो उसके मन में इस प्रकार का यावत् विचार उत्पन्न हुआ--पूर्वानुपूर्वी (अनुक्रम) से विचरण करते हुए तथा ग्रामानुग्राम सुखपूर्वक पदार्पण करते हुए ज्ञातपुत्र श्रमण (महावीर) यावत् यहाँ आए हैं, यावत् चुतिपलाश उद्यान में यथायोग्य अवग्रह ग्रहण करके विराजमान हैं। अतः मैं श्रमण ज्ञातपुत्र के पास जाऊं और वहाँ जाकर इन और ऐसे अर्थ (बातें) यावत् व्याकरण (प्रश्नों के उत्तर) उनसे पूछु / यदि वे मेरे इन और ऐसे अर्थों यावत् प्रश्नों का यथार्थ उत्तर देंगे तो मैं उन्हें वन्दना-नमस्कार करूंगा, यावत् उनकी पर्युपासना करूंगा / यदि वे मेरे इन और ऐसे अर्थों और प्रश्नों के उत्तर नहीं दे सकेंगे तो मैं उन्हें इन्हीं अर्थों और उत्तरों से निरुत्तर कर दुगा / ' ऐसा विचार किया। तत्पश्चात् उसने स्नान किया, यावत् शरीर को वस्त्र और सभी अलंकारों से विभूषित किया / फिर वह अपने घर से निकला और अपने एक सौ शिष्यों के साथ (घिरा हुआ) पैदल चल कर वाणिज्य ग्राम नगर के मध्य में होकर जहाँ द्युतिपलाश-उद्यान था और जहाँ श्रमण भगवान महावीर विराजमान थे, वहाँ उनके पास आया और श्रमण भगवान् महाबीर से न अतिदुर, न अतिनिकट खड़े होकर उसने उनसे इस प्रकार पूछा---- [प्र. भंते ! आपके (धर्म में) यात्रा, यापनीय, अव्याबाध और प्रासुकविहार है ? [उ.] सोमिल ! मेरे (धर्म में) यात्रा भी है, यापनीय भी है, अव्याबाध भी है और प्रासुकविहार भी है। 18. कि ते भंते ! जत्ता? सोमिला ! जं मे तव-नियम-संजम-सज्माय-माणावस्सगमादीएसु जोएसु जयणा से तं जत्ता। [18 प्र.] भंते ! आपके यहाँ यात्रा कैसी है ? [18 उ.] सोमिल ! तप, नियम, संयम, स्वाध्याय, ध्यान और अावश्यक प्रादि योगों में जो मेरी यतना (प्रवृत्ति) है, वही मेरी यात्रा है।। 19. किं ते भंते ! जयणिज्ज ? सोमिला ! जवणिज्जे दुविहे पन्नत्ते, तं जहा-इंदियजवणिजे य नोइंदियजवणिज्जे य / [16 प्र.] भगवन् ! आपके यापनीय क्या है ? [16 प्र.] सोमिल ! यापनीय दो प्रकार का कहा गया है। वह इस प्रकार है--(१) इन्द्रिय-यापनीय और (2) नो-इन्द्रिययापनीय / 20. से कि तं इंदियजवणिज्जे ? इंदियजवणिजे-ज मे सोतिदियचक्खिदिय-घाणिदिय-जिनिदिय-फासिदियाई निरुवहयाई वसे वट्टति, से तं इंदियजवणिज्जे / [20 प्र.] भगवन् ! वह इन्द्रिय-यापतीय क्या है ? [20 उ.] सोमिल ! श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, जिह्वन्द्रिय और स्पर्शेन्द्रिय, ये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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