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________________ 744] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र वाणिज्यग्राम नगरवासी सोमिल ब्राह्मण द्वारा पूछे गए यात्रादि सम्बन्धित चार प्रश्नों का भगवान द्वारा समाधान 13. तए णं समणे भगवं महाबीरे जाव बहिया जणक्यविहारं विहरइ। [13] तदनन्तर श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने यावत् बाहर के जनपदों में विचरण किया। 14. तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणियग्गामे नाम नगरे होत्था / वण्णओ / दूतिपलासए चेतिए / वष्णओ। [14] उस काल उस समय में वाणिज्यग्राम नामक नगर था। उसका वर्णन करना चाहिए। वहाँ द्युतिपलाश नाम का उद्यान (चैत्य) था। उसका वर्णन करना चाहिए। 15. तत्थ णं वाणियग्गामे नगरे सोमिले नाम माहणे परिवसति अड्डे जाव अपरिभूए रिव्वेद जाव सुपरितिट्ठिए पंचण्हं खंडियसयाणं सयस्स य कुडुबस्स आहेबच्चं जाव विहरइ / [15] उस वाणिज्यग्राम नगर में सोमिल नामक ब्राह्मण (मान) रहता था। जो माढ्य यावत् अपराभूत था / तथा ऋग्वेद यावत् अथर्ववेद, तथा शिक्षा, कल्प आदि वेदांगों में निष्णात था। वह पांच-सौ शिष्यों (खण्डिकों) और अपने कुटुम्ब पर आधिपत्य करता हुआ यावत् सुखपूर्वक जीवनयापन करता था। 16. तए णं समणे भगवं महावीरे जाव समोसढे / जाव परिसा पज्जुवासइ / [16] उन्हीं दिनों में (वाणिज्य ग्राम के द्युतिपलश नामक उद्यान में) श्रमण भगवान् महावीर स्वामी यावत् पधारे / यावत् परिषद् भगवान् की पर्युपासना करने लगी। 17. तए णं तस्स सोमिलस्स माहणस्स इमोसे कहाए लद्धदृस्स समाणस्स अयमेयारूवे जाव समुप्पज्जित्था-'एवं खलु समणे णायपुत्ते पुव्वाणुपुटिव चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे सुहंसुहेणं जाव इहमागए जाव इतिपलासए चेतिए अहापडिरूवं जाव विहरति / तं गच्छामि गं समणस्स नायपुत्तस्स अंतियं पाउन्भवामि, इमाइं च णं एयारूवाइं अट्ठाई जाव वागरणाई पुच्छिस्सामि, तं जइ मे से इमाई एयारूवाई अट्ठाई जाव वागरणाई वागरेहिति तो गं वंदोहामि नमसीहामि जाव पज्जुवासीहामि / अह मे से इमाइं अट्ठाई जाव वागरणाई नो वागरेहिति तो णं एतेहि चेव अट्ठहि य जाव वागरणेहि य निप्पट्ठपसिणवागरणं करिस्सामिति कट्ट, एवं संपेहेइ, ए० सं० 2 हाए जाव सरोरे साओ गिहाओ पडिनिक्खमति, पडि० 2 पादविहारचारेणं एगेणं खंडियसएणं सद्धि संपरिडे वाणियग्गामं नगरं मज्झमज्झेणं निग्गच्छइ, नि०२ जेणेव दूतिपलासए चेतिए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति उवा० 2 समणस्त भगवतो महावीरस्स प्रदूरसामंते ठिच्चा समणं भगवं महाबीरं एवं वदासि --जत्ता ते भंते ! जवणिज्जं अव्वाबाहं फासुयविहारं? सोमिला ! जत्ता वि मे, जवणिज्ज पि मे, अन्वाबाहं पि मे, फासुयविहारं पि मे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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