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________________ लेश्याएँ होती हैं, इस पर भी चिन्तन किया है। यह वर्णन बहत ही महत्व है / विस्तार भय से हम इस पर तुलनात्मक और समीक्षात्मक दृष्टि से विचार नहीं कर पा रहे हैं। शतक एक, उद्देशक चार में गणधर गौतम ने मोक्ष के सम्बन्ध में जिज्ञासा प्रस्तुत की कि मोक्ष कौन प्राप्त करता है ? भगवान् ने कहा-जो चरम शरीरी है, जिसने केवलज्ञान, केवल दर्शन प्राप्त किया है वही प्रात्मा सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होता है। मोक्ष आत्मा की शुद्ध स्वरूपावस्था है। कर्ममल के अभाव में कर्मबन्धन भी नहीं रहता और बन्धन का अभाव ही मुक्ति है / साधक का अन्तिम लक्ष्य मोक्ष है। इस प्रकार जीव के सम्बन्ध में विभिन्न दष्टियों से चिन्तन किया गया है। यह चिन्तन इतना व्यापक है कि उस सम्पूर्ण चिन्तन को यहाँ पर प्रस्तुत नहीं किया जा सकता। अत: मैं जिज्ञासु पाठकों को यह नम्र निवेदन करना चाहंगा कि वे मूल आगम का पारायण करें, जिससे जैन दर्शन के जीवविज्ञान का सम्यकपरिज्ञान हो सकेगा। कर्म : एक चिन्तन जिस प्रकार जीवविज्ञान के सम्बन्ध में विस्तत चिन्तन है उसी तरह कमविज्ञान के सम्बन्ध में भी विविध जिज्ञासाएँ प्रस्तुत की गई हैं। प्राचार्य देवचन्द्र ने कर्म की परिभाषा करते हुए लिखा है-जीव की क्रिया का जो हेत, वह कम है। पं सुख लालजी ने लिखा है-मिथ्यात्व, कषाय प्रभति कारणों से जीव के द्वारा जो किया जाता है, वह कर्म है। कर्म के भी द्रव्य और भाव ये दो प्रकार हैं / आत्मा के मानसिक विचार भावकम हैं और वे मनोभाव जिस निमित्त से होते हैं या जो उनका प्रेरक है वह द्रव्यकर्म है। प्राचार्य नेमिचन्द्र के शब्दों में कहा जाय तो पुदगलपिण्ड द्रव्यकर्म हैं और चेतना को प्रभावित करने वाले भावक.म हैं / आचार्य विद्यानन्दि ने प्रष्टसहस्री में द्रव्य कर्म को प्रावरण और भावकर्म को दोष के नाम से सूचित किया है। क्योंकि द्रव्यकर्म प्रात्मशक्तियों के प्रकट होने में बाधक है। इसलिए उसे प्रावरण कहा और भावकर्म स्वयं प्रात्मा की विभाव अवस्था है, अत: दोष है। भावकर्म के होने में द्रव्यकर्म निमित्त है और द्रव्यकर्म में भाबकर्म निमित्त है। दोनों का परस्पर में बीजांकुर की तरह कार्यकारणभाव सम्बन्ध है। जनष्टि से द्रव्यकर्म पौद्गलिक होने से मूर्त हैं। कारण से कार्य का अनुमान होता है, वैसे ही कार्य से भी कारण का अनुमान होता है / इस दष्टि से शरीर प्रभात कार्य मूर्त हैं तो उनका कारण कर्म भी मूर्त होना चाहिए / कर्म की मूर्तता को सिद्ध करने के लिए मनीषियों ने कुछ तर्क इस प्रकार दिए हैं-कर्म मूर्त हैं क्योंकि उनसे सुख-दुःख आदि का अनुभव होता है, जैसे आहार से / कर्म मूर्त है क्योकि उनसे वेदना होती है, जिस प्रकार अग्नि से / यदि कर्म अमुर्त होते तो उनके कारण सुख-दु:ख प्रादि की वेदना नहीं हो सकती थी। जिज्ञासा हो सकती है कि यदि कर्म मृत हैं तो फिर अमुर्त आत्मा पर कर्म का प्रभाव किस प्रकार गिरता है ? वायु और अग्नि मूतं हैं तो उनका अमूर्त आकाश पर प्रभाव नहीं होता / वैसे ही अमूर्त श्रात्मा पर मूर्तकर्म का प्रभाव नहीं होना चाहिए / उत्तर में निवेदन है कि ज्ञान गुण अमूर्त है, उस अमूर्त गुण पर मदिरा आदि मूर्त वस्तुओं का असर होता है / वैसे ही अमूर्त जीव पर मूर्त कर्म का प्रभाव पड़ता है। इसके अतिरिक्त अनादिकालिक कर्मसंयोग के कारण प्रात्मा कथंचित् मूर्त है। अनादि काल से आत्मा के साथ कर्म का सम्बन्ध रहा हुआ होने से स्वरूप से अमूर्त होने पर भी कथंचित वह मूर्त है। इस दृष्टि से मूतं कर्म का प्रात्मा पर प्रभाव पड़ता है। जब तक आत्मा कार्मण शरीर से मुक्त नहीं होता तब तक कर्म अपना प्रभाव दिखाते ही हैं। जन मनीषियों ने प्रात्मा और कर्म का सम्बन्ध 'नीर-क्षीरवत' या 'अग्नि-लोह पिण्डवत' माना है / यहां पर यह भी प्रश्न समुत्पन्न हो सकता है-कर्म जड़ हैं। वे चेतन को प्रभावित करते हैं तो फिर मुक्तावस्था में भी [ 92 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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