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________________ उपयोग और उसके प्रकार भगवतीसूत्र शतक सोलह, उद्देशक सात में उपयोग के सम्बन्ध में जिज्ञासा प्रस्तुत की गई है। भगवान् ने उपयोग के साकार और निराकार ये दो भेद किये और साकार उपयोग में ज्ञान और निराकार उपयोग में दर्शन को लिया है। साकार उपयोग के पाठ प्रकार और निराकार उपयोग यानी दर्शन के चार प्रकार बताये हैं। ज्ञान और दर्शन-रूप चेतना का जो व्यापार यानी प्रवत्ति है, वह उपयोग है। उपयोग को जीव का लक्षण माना है। इसलिए प्रत्येक प्राणी में उपयोग है, पर अविकसित प्राणियों का उपयोग अव्यक्त होता है और विकसित प्राणियों का व्यक्त होता है। उपयोग की प्रबलता का कारण है ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय कर्म का क्षय और क्षयोपशम / जितना अधिक क्षयोपशम होगा उतना ही अधिक उपयोग निर्मल होगा / ज्ञानोपयोग में ज्ञेय पदार्थ को भिन्न-भिन्न आकृतियों की प्रतीति होती है तो दर्शनोपयोग में एकाकार प्रतीति होती है। उसमें ज्ञेय पदार्थ के अस्तित्व का ही बोध होता है। इसलिए उसमें आकार नहीं बनता। ज्ञान के जो पांच और अज्ञान के जो तीन प्रकार बताये हैं, उसका कारण सम्यक्त्व और मिथ्यात्व है। मिथ्यात्व के कारण ज्ञान भी अज्ञान में बदल जाता है। मन:पर्यवज्ञान और केवलज्ञान विशिष्ट साधकों को ही होते हैं इसलिए वे ज्ञान ही हैं, प्रज्ञान नहीं। यहाँ यह भी जिज्ञासा हो सकती है ज्ञान के पांच और दर्शन के चार ही भेद क्यों बताये ? मनःपर्यव को दर्शन क्यों नहीं कहा? उत्तर है-मनःपर्यवज्ञान में मन की विविध प्राकृतियों को जीव ज्ञान से पकड़ता है, इसलिए वह ज्ञान है / दर्शन का विषय निराकार है / इसलिए मनःपर्यव दर्शन नहीं है। लेश्या : एक चिन्तन वतीसूत्र शतक एक, उद्देशक दो में गणधर गौतम ने लेश्या के सम्बन्ध में भगवान् महावीर से पूछाभगवन् ! लेश्या के कितने प्रकार हैं ? भगवान महावीर ने लेश्या के छ: प्रकार बताये। वे हैं--कृष्ण, नील, कापोत, तेजो, पद्म और शुक्ल / इन छः लेश्यानों में तीन प्रशस्त और तीन अप्रशस्त हैं। लेश्या शब्द भी जैनधर्म का एक पारिभाषिक शब्द है। उसका अर्थ है--जो प्रात्मा को कों से लिप्त करती है, जिसके द्वारा प्रात्मा कर्मों से लिप्त होती है या बन्धन में आती है, वह लेश्या है। लेश्या के भी दो प्रकार हैं-द्रव्यलेश्या और भावलेश्या / द्रव्यलेश्या सूक्ष्म भौतिकी तत्त्वों से निर्मित वह आंगिक संरचना है जो हमारे मनोभावों और तज्जनित कर्मों का सापेक्षरूप में कारण या कार्य बनती है। उत्तराध्ययन की टोका के अनुसार लेश्याद्रव्य कर्मवर्गणा से तिमित हैं। प्राचार्य बादीवैताल शान्तिसूरि के अभिमतानुसार लेश्याद्रव्य बध्यमान कर्मप्रभारूप है। प्राचार्य हरिभद्र के अनुसार लेश्या योगपरिणाम है, जो शारीरिक, वाचिक और मानसिक क्रियाओं का परिणाम है 10. भावलेश्या आत्मा का अध्यवसाय या अन्तःकरण की वृत्ति है। पं. सुखलालजी संघवी के शब्दों में कहा जाय तो भावलेश्या आत्मा का मनोभाव-विशेष है जो संक्लेश और योग से अनुगत है। संक्लेश के तीव्र, तीनतर, तीव्रतम, मन्द, मन्दतर, मन्दतम प्रभति अनेक भेद होने से लेश्या के भी अनेक प्रकार हैं। मनोभाव या संकल्प आन्तरिक तथ्य ही नहीं अपितु वे क्रियाओं के रूप में बाह्य अभिव्यक्ति भी चाहते हैं। संकल्प हो कर्म में रूपान्तरित होता है। अतः जैनमनीषियों ने जब लेण्यापरिणाम की चर्चा की तो वे केवल मनोदशानों के चित्रण तक ही आबद्ध नहीं रहे अपितु उन्होंने उस मनोदशा से समुत्पन्न जोबन के कर्मक्षेत्र में होने वाले व्यवहारों की भी चर्चा की है। इस तरह लेश्या का विध वर्गीकरण किया गया है और उनके द्वारा जो विचारप्रवाह प्रवाहित होता है उस सम्बन्ध में भो आगमकारों ने प्रकाश डाला है / किन जीवों में कितनी 301. (क) दर्शन और चिन्तन, भाग 2, पृष्ठ 297 (ख) अभिधानराजेन्द्र कोष, खण्ड 6, पृष्ठ 675 [ 91] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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