________________ संयोग या वियोग से होने वाली जीव की अवस्था-विशेष / संसारी जीव अपने शुद्धस्वरूप को प्राप्त नहीं है। अनादिकाल से वह कर्म मल से लिप्त है। जब तक कर्ममल नष्ट नहीं होता तब तक बन्ध, उदय, उपशम, क्षय, क्षयोपशम प्रभति से होने वाली नाना प्रकार को परिणतियों में वह परिणत होता रहता है। कर्मों के उदय से होने वाली आत्मा की अवस्था प्रौदयिक भाव है। इसे अपर शब्दों में उदयनिष्पन्न भाव भी कह सकते हैं। यह आठों कर्मों का होता है। जब मोहकर्म का उपशम होता है तब आत्मा की जो अवस्था होती है वह औपमिक भाव है / उदय पाठों कर्मों का होता है पर उपशम केवल मोहनीयकर्म का ही होता है। उपशम काल में मोह पूर्ण रूप से प्रभावहीन हो जाता है, पर उपशम स्थिति केवल अन्तमहर्तमात्र की है। अतः जीव को पुनः पुनः प्रयत्न करना पड़ता है। कर्मों के क्षय से होने वाली प्रात्मा की अवस्था क्षायिक या क्षयनिष्पन्न भाव है। कर्मो का क्षय हो जाने से पुन: किसी कर्म का बन्ध नहीं होता। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय इन चार धाति कर्मों के हलकेपन से प्रात्मा की जो अवस्था होती है वह क्षायोपशामिक या क्षयोपशमनिष्पन्न भाव कहलाता है / जितना पारमा पुरुषार्थ करता है उतना ही वह कर्म के भार से हल कापन अनुभव करता है। यह हलकापन ही क्षायोपशमिक भाव है। उपशम और क्षयोपशम भाव में विपाक रूप में उदयाभाव की स्थिति एक सदृश होती है। प्रोपमिक भाव में प्रदेशरूप में उदय नहीं होता, पर क्षायोपशमिक भाव में प्रतिपल प्रतिक्षण कर्म का उदय, बेदन और क्षय होता रहता है। इस कर्मक्षय के साथ ही भविष्यकाल में उदयप्राप्त कर्मों का उपशमन होता है। इसलिए यह भाव क्षयोपशमनिष्पन्न भाव कहलाता है। कर्मों के उदय, उपशम, क्षय और क्षयोपशम के बिना स्वभावत: जीव में जो परिणतियां होती हैं, वह पारिणामिक भाव है। इस प्रकार भाव के सम्बन्ध में अनेक जिज्ञासाएँ गणधर गौतम के द्वारा प्रस्तुत की गई और भगवान ने 'उन जिज्ञासामों का समाधान दिया। योग और उसके प्रकार भगवतीसूत्र शतक सोलह, उद्देशक तीन में गणधर गौतम ने जिज्ञासा प्रस्तुत की—योग कितने प्रकार का है ? भगवान् ने योग के तीन प्रकार बतलाये—मन, वचन और काय / योग शब्द का प्रयोग अनेक अर्थों में होता है, पर वर्तमान में मुख्य रूप से योग शब्द दो अर्थ में व्यवहृत है--मिलन और समाधि / आज साधनापद्धति और प्रासन आदि के अर्थ में उसका अधिक प्रचार है। पर जैनपरिभाषा में योग का अर्थ मन, वाणी और शरीर की प्रवृत्ति है। योग एक प्रकार का स्पन्दन है जो प्रात्मा और पुद्गलवर्गमा के संयोग से होता है / वीर्यान्तरायकर्म के क्षय या क्षयोपशम व नामकर्म के उदय से मन, वचन और काय वर्गणा के संयोग से जो मात्मा की प्रवृत्ति होती है वह योग है / इन तीन योगों में काययोग संसार के प्रत्येक प्राणी में होता है / स्थावरों में केवल काययोग होता है। विकलेन्द्रिय और असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीवों में काययोग और बचन योग होते है / संज्ञी मनुष्य और तिर्यञ्चों में तीनों योग होते हैं। भगवतीसूत्र शतक पच्चीस, उद्देशक पहले में इन तीनों योगों के विस्तार से पन्द्रह प्रकार भी बताये हैं। कषाय भगवतीसूत्र शतक अठारह, उद्देशक चार में भगवान् ने कषाय के क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार प्रकार बताये हैं। कषाय शब्द भी जैनधर्म का पारिभाषिक शब्द है। यह शब्द कष और आय इन दो शब्दों के मेल से बना है। कष् का अर्थ संसार, कर्म और जन्म-मरण है / जिसके द्वारा प्राणी कर्मो से बांधा जाता है या जिससे जीव जन्म-मरण के चक्र में पड़ता है, वह कषाय है। कषाय ऐसी मनोवत्तियाँ हैं जो कलुषित हैं, इसी कारण कषाय को संसार का मूल कहा है। [ 90 ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org