________________ चौदहवां शतक : उद्देशक 5] [13] पृथ्वीकायिक जीव (इन दस स्थानों में से) छह स्थानों का अनुभव करते रहते हैं / यथा---(१) इष्ट-अनिष्ट स्पर्श (2) इष्ट-अनिष्ट गति, यावत् (3) इष्टानिष्ट स्थिति, (4) इष्टानिष्ट लावण्य, (5) इष्टानिष्ट यश कीर्ति और (6) इष्टानिष्ट उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकारपराक्रम। 14. एवं जाव वणस्सइकाइया। [14] इसी प्रकार (अप्कायिक से लेकर) यावत् वनस्पतिकायिक जीवों तक कहना चाहिए। 15. बेइंदिया सत्तट्ठाणाई पच्चणुभवमाणा विहरंति, तं जहा-इट्ठाणिट्टा रसा, सेसं जहा एगिदियाणं। [15] द्वीन्द्रिय जीव (दस में से ) सात स्थानों का अनुभव करते रहते हैं / यथा-इष्टानिष्ट रस इत्यादि शेष एकेन्द्रिय जीवों के समान कहना चाहिए / 16. तेइंदिया णं अट्ठाणाई पच्चणुभवमाणा विहरति, तं जहा-इटाणिट्ठा गंधा, सेसं जहा बेइंदिया। [16] त्रीन्द्रिय जीव (दस में से) पाठ स्थानों का अनुभव करते हैं / यथा---इष्टानिष्ट गन्ध इत्यादि शेष द्वीन्द्रिय जीवों के समान कहना चाहिए। 17. चरिदिया नवट्ठाणाई पच्चणुभवमाणा विहरंति, तं जहा- इट्टाणिट्ठा रूवा, सेसं जहा तेइंदियाणं / [17] चतुरिन्द्रिय जीव (दस में से) नौ स्थानों का अनुभव करते हैं / यथा-इष्टानिष्ट रूप इत्यादि शेष त्रीन्द्रिय जीवों के समान कहना चाहिए। 18. पंचेंदियतिरिक्खजोणिया दसटाणाई पच्चणुभवमाणा विहरंति, तं जहा-इट्ठाणिट्ठा सदा जाव परवकमे। [18] पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक जीव दस स्थानों का अनुभव करते हैं। यथा-इप्टानिष्ट शब्द यावत् इष्टानिष्ट उत्थान-कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार-पराक्रम / 16. एवं मणुस्सा वि। [16] इसी प्रकार मनुष्यों के विषय में भी कहना चाहिए। 20. वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणिया जहा असुरकुमारा। [20] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों तक असुरकुमारों के समान कहना चाहिए / विवेचन-अनिष्ट, इष्टानिष्ट एवं इष्ट स्थानों के अधिकारी प्रस्तुत सूत्रों में चौवीस दण्डकवर्ती जीवों में से अनिष्ट, इष्ट या इष्टानिष्ट शब्दादि स्थानों में से किनको कितने स्थानों का अनुभव होता है ? इसका निरूपण किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org