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________________ 35.] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र बीच में होकर जा सकते हैं, किन्तु यहाँ उनकी विवक्षा नहीं है / यहाँ तो स्थावरत्व की विवक्षा है / यद्यपि वायु आदि की प्रेरणा से पृथ्वी आदि का अग्नि के मध्य में गमन सम्भव है, परन्तु यहाँ स्वतन्त्रतापूर्वक गमन की विवक्षा की गई है / एकेन्द्रिय जीव स्थावर होने से स्वतन्त्रतापूर्वक अग्नि के मध्य में होकर नहीं जा सकते। पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च और मनुष्य की अग्निप्रवेश-शक्ति-प्रशक्ति-जो विग्रहगति-समापनक हैं, उनका वर्णन नैयिक के समान है। किन्तु अविग्रहगति-समापन लिर्यञ्चपंचेन्द्रिय और मनुष्य, जो वैक्रियलब्धिसम्पन्न (ऋद्धि प्राप्त) हैं और मनुष्यलोकवर्ती हैं, वे मनुष्यलोक में अग्नि का सद्भाव होने से उसके बीच में होकर जा सकते हैं / जो मनुष्यक्षेत्र से बाहर के क्षेत्र में हैं वे अग्नि में से होकर नहीं जाते; क्योंकि वहाँ अग्नि का अभाव है / जो ऋद्धि-अप्राप्त हैं, वे भी कोई-कोई (जादूगर आदि) अग्नि में से होकर जाते हैं, कोई नहीं जाते क्योंकि उनके पास तथाविध सामग्री का अभाव है। किन्तु ऋद्धिप्राप्त तो अग्नि में होकर जाने पर भी जलते नहीं, जबकि ऋद्धि-अप्राप्त जो अग्नि में होकर जाते हैं, वे जल सकते हैं।' कठिनशब्दार्थ-वीइवएज्जा-चला जाता है, लांघ जाता है / शियाएज्जा-जल जाता है। इपित्ता-वैक्रियल ब्धि-सम्पन्न / कमइ-जाता है, असर करता है, लगता है।' चौवीस दण्डकों में शब्दादि दस स्थानों में इष्टानिष्ट स्थानों के अनुभव को प्ररूपणा 10. नेरतिया दस ठाणाई पच्चणुभवमाणा विहरंति, तं जहा-अणिट्टा सद्दा, अणिट्ठा रूवा, जाव अणिट्ठा फासा, अणिट्ठा गती, अणिट्ठा ठिती, अणिट्ठ लायणे, अणि? जसोकित्ती, अणि? उखाणकम्मबलवीरियपुरिसक्कारपरक्कमे / 10] नैरयिक जीव दस स्थानों का अनुभव करते रहते हैं। यथा-(१) अनिष्ट गब्द, (2) अनिष्ट रूप, (3) अनिष्ट गन्ध, (4) अनिष्ट रस, (5) अनिष्ट स्पर्श, (6) अनिष्ट गति, (7) अनिष्ट स्थिति, (8) अनिष्ट लावण्य, (6) अनिष्ट यशःकीर्ति और (10) अनिष्ट उत्थान, कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार-पराक्रम / / 11. असुरकमारा दस ठाणाई पच्चणुभवमाणा विहरंति, तं जहा-इट्ठा सद्दा, इट्ठा रूवा जाव इ8 उट्ठाणकम्मबलवोरियपुरिसक्कारपरक्कमे / [11] असुरकुमार दस स्थानों का अनुभव करते रहते हैं / यथा--इन्ट शब्द, इष्ट रूप यावत इष्ट उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार-पराक्रम / 12. एवं जाव थणियकुमारा। [12] इसी प्रकार यावत् स्तनितकुमारों तक कहना चाहिए। 13. पुढविकाइया छट्ठाणाई पच्चणुभवमागा विहरंति, सं जहा–इट्ठाणिट्टा फासा, इट्ठाणिट्ठा गतो, एवं जाव परक्कमे। 1. (क) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2315-16 (ख) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 642 2. भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2311 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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