________________ चौदहवां शतक : : उद्देशक 5] [ રૂ:૭ [प्र. जो अग्नि में हो कर जाता है, क्या वह जल जाता है ? [उ.] यह अर्थ समर्थ नहीं. क्योंकि उस पर (अग्नि प्रादि) शस्त्र असर नहीं करता / परन्तु जो ऋद्धि-प्रप्राप्त पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक हैं, उनमें से भी कोई अग्नि में हो कर जाता है और कोई नहीं जाता। |प्र.] जो अग्नि में से हो कर जाता है, क्या वह जल जाता है ? [उ.] हाँ, वह जल जाता है। इसी कारण हे गौतम ! ऐसा कहा गया है कि कोई अग्नि में से हो कर जाता है और कोई नहीं जाता। 8. एवं मणुस्से वि। 8] इसी प्रकार मनुष्य के विषय में भी कहना चाहिए / 9. वाणमंतर-जोतिसिय-वेमाणिए जहा असुरकुमारे / [6] वाणव्यन्तरों, ज्योतिष्कों और वैमानिकों के विषय में असुरकुमारों के समान कहना चाहिए। विवेचन-विग्रहगति-समापनक और अविग्रह-गतिसमापनक-एक गति से दूसरी गति में जाते हुए जीव विग्रहगति-समापन्नक कहलाते हैं। वह जीव उस समय कार्मणशरीर से युक्त होता है और कार्मणशरीर सूक्ष्म होने से उस पर अग्नि प्रादि शस्त्र असर नहीं कर सकते / जो जीव उत्पत्तिक्षेत्र को प्राप्त हैं, वे अविग्रहगति-समापन्नक कहलाते हैं। अविग्रहगति-समापन्नक का अर्थ यहाँ 'ऋजुगति-प्राप्त' विवक्षित नहीं है, क्योंकि उसका यहाँ प्रसंग नहीं है / उत्पत्तिक्षेत्र को प्राप्त नैयिक जीव, अग्निकाय के बीच में से होकर नहीं जाता, क्योंकि नरक में बादर अग्निकाय का अभाव है। मनुष्यक्षेत्र में ही य होता है। उत्तराध्ययन प्रादि शास्त्रों में व्यासणे जलतंमि दडढ पूवो प्रणगसो, अर्थात् नारक जीव अनेक बार जलती आग में जला, इत्यादि वर्णन पाया है, वहाँ अग्नि के सदृश कोई उष्णद्रव्य समझना चाहिए / सम्भव है, तेजोलेश्या द्रव्य की तरह का कोई तथाविध शक्तिशाली द्रव्य हो। असुरकुमारादि भवनपति को अग्नि-प्रवेश-शक्ति-विग्रहगति-प्राप्त असुरकुमार का वर्णन विग्रहगतिप्राप्त नैरयिक के समान जानना चाहिए / अविग्रहगतिप्राप्त (उत्पत्ति क्षेत्र को प्राप्त) असुरकुमारादि जो मनुष्यलोक में आते हैं, वे यदि अग्नि के मध्य में होकर जाते हैं, तो जलते नहीं क्योंकि बैक्रिय शरीर अतिसूक्ष्म है और उनकी गति शीघ्रतम होती है। जो असुरकुमार आदि मनुष्यलोक में नहीं आते, वे अग्नि के मध्य में होकर नहीं जाते / शेष तीन जाति के देवों की भी अग्निप्रवेशशक्ति इनके समान ही है।' स्थावरजीवों की अग्निप्रवेश-शक्ति-अशक्ति-विग्रहगति-प्राप्त एकेन्द्रिय जीव अग्नि के बीच में होकर जा सकते हैं और वे सूक्ष्म होने से जलते नहीं हैं। अविग्रहगति-प्राप्त एकेन्द्रिय जीव अग्नि के बीच में होकर नहीं जाते, क्योंकि वे स्थावर हैं। अग्नि और वायु, जो गतित्रस हैं, वे अग्नि के 1. (क) भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 642 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5 पृ. 2315 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org