________________ 386] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र 5. बेइंदिया णं भंते ! अगणिकायस्स मज्झमझेणं० ? जहा असुरकुमारे तहा बेइंदिए वि / नवरं जे गं बीतीवएज्जा से णं तत्थ झियाएज्जा ? हता, झियाएज्जा / सेसं तं चेव / [5 प्र.) भगवन् ! द्वीन्द्रिय जीव अग्निकाय के मध्य में से हो कर जा सकते हैं ? [5 उ.] जिस प्रकार असुरकुमारों के विषय में कहा उसी प्रकार द्वीन्द्रियों के विषय में कहना चाहिए। परन्तु इतनी विशेषता है कि --- [प्र.] भगवन् ! जो द्वीन्द्रिय जीव अग्नि के बीच में हो कर जाते हैं, वे जल जाते हैं ? [उ.] हाँ, वे जल जाते हैं। शेष सभी वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए। 6. एवं जाव चरिदिए। [6] इसी प्रकार (का कथन) यावत् चतुरिन्द्रिय तक (करना चाहिए / ) 7. [1] पंचिदियतिरिक्खजोणिए णं भंते ! अगणिकाय पुच्छा। गोयमा ! अत्भेगतिए वीतीवएज्जा, अत्थेगतिए नो वोइवएज्जा / [7-1 प्र.] भगवन ! पञ्चेन्द्रिय-तिर्यग्योनिक जीव अग्नि के मध्य में होकर जा सकते हैं ? [7-1 उ.] गौतम ! कोई जा सकता है और कोई नहीं जा सकता। [2] से केण?णं० ? गोयमा ! पंचेंदियतिरिक्खजोणिया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-विग्गहगतिसमावन्नगा य अविग्रहगतिसमावन्नगा य / विग्गहगतिसमावन्नए जहेव नेरइए जाव नो खलु तत्थ सत्थं कमइ / प्रविग्गहराइसमावन्नगा पंचेंदियतिरिक्खजोणिया दुविहा पन्नत्ता, तं जहा- इथित्यत्ता य अणिढिप्पत्ता य / तत्थ गं जे से इडिप्पत्ते पंचेंदियतिरिक्खजोणिए से णं अत्थेगतिए अगणिकायस्स मज्झमझेणं वीतीवएज्जा, अत्थेगतिए नो बीतीवएज्जा। जे णं बीतीवएज्जा से णं तत्थ झियाएज्जा? नो इण8 समट्ठ। नो खलु तत्थ सत्य कमइ। तत्थ गं जे से अणिझिप्पत्ते पंचेदियतिरिक्खजोणिए से णं अत्थेगतिए अगणिकायस्स मज्झमझेणं वीतीवएज्जा, अत्थेगतिए नो वौइवएज्जा। जे णं वीतीवएज्जा से णं तत्थ झियाएज्जा? हंता, झियाएज्जा ! से तेण?णं जाव नो बीतीवएज्जा / [7-2 प्र.] भगवन् ! ऐसा क्यों कहा जाता है ? [7-2 उ.] गौतम ! पंचेन्द्रिय-तिर्यग्योनिक जीव दो प्रकार के हैं यथा-विग्रहगति-समापनक और अविग्रहगति-समापन्नक। जो विग्रहगति-समापन्नक पंचेन्द्रिय-तिर्यंचयोनिक हैं, उनका कथन नैरयिक के समान जानना चाहिए, यावत् उन पर शस्त्र असर नहीं करता / अविग्रह-समापन्नक पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक दो प्रकार के कहे गए हैं—ऋद्धिप्राप्त और अनुद्धिप्राप्त (ऋद्धि-अप्राप्त) / जो ऋद्धिप्राप्त, पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक हैं, उनमें से कोई अग्नि के मध्य में हो कर जाता है और कोई नहीं जाता / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org