________________ पंचम शतक : उद्देशक-८] [501 27. सेसा सव्वे सोवचया वि, सावचधा वि, सोवनयसावचया वि, निरुवचयनिरवचया वि जहन्नेणं एग समयं, उक्कोसेणं प्रावलियाए प्रसंखेजतिभागं प्रवटिहि वक्कंतिकालों' भाणियन्यो। [27] शेष सभी जीव सोपचय भी हैं, सापचय भी हैं, सोपचय-सापचय भी हैं और निरुपचय-निरपचय भी हैं। इन चारों का काल जघन्य एक समय और उत्कृष्ट प्रालिकाका असंख्यातवाँ भाग है / अवस्थितों (निरुपचय-निरपचय) में व्युत्क्रान्तिकाल (विरहकाल) के अनुसार कहना चाहिए। 28. [1] सिद्धा गं भंते ! केवतियं कालं सोवचया ? गोयमा! जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं अट्ठ समया / [28-1 प्र.] भगवन् ! सिद्ध भगवान् कितने काल तक सोपचय रहते हैं ? [28-1 उ.] गौतम ! जघन्य एक समय और उत्कृष्ट आठ समय तक वे सोपचय रहते हैं। [2] केवतियं कालं निरुवचयनिरवचया ? जहन्नेणं एक्कं समयं, उक्कोसेणं छम्मासा / सेवं भते! सेवं भते ! ति० / // पंचमसए : प्रमो उद्देसो॥ [28-2 प्र.] और सिद्ध भगवान्, निरुपचय-निरपचय कितने काल तक रहते हैं ? [28-2 उ.] (गौतम ! ) वे जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह मास तक निरुपचयनिरपचय रहते हैं। 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है' यों कहकर गौतम स्वामी यावत् विचरने लगे। विवेचन-संसारी और सिद्ध जीवों में सोपचयादि चतुर्भग एवं उनके काल-मान का निरूपणप्रस्तुत पाठ सूत्रों में समुच्चयजीवों, तथा चौबीस दण्डकों व सिद्धों में सोपचयादि के अस्तित्व एवं उनके कालमान का निरूपण किया गया है। सोपचयादि चार भंगों का तात्पर्य-सोपचय का अर्थ है-वृद्धिसहित / अर्थात्-पहले के जितने जीव हैं, उनमें नये जीवों की उत्पत्ति होती है, उसे सोपचय कहते हैं। पहले के जीवों में से कई जीवों के मर जाने से संख्या घट जाती है, उसे सापचय (हानिसहित) कहते हैं / उत्पाद और उद्वर्तन (मरण) द्वारा एक साथ वृद्धि-हानि होती है, उसे सोपचय-सापचय (वृद्धिहानिसहित) कहते हैं, उत्पाद और उद्वर्तन के अभाव से वृद्धि हानि न होना ‘निरुपचय-निरपचय' कहलाता है। - - -.-..-...--.. 1. व्युत्क्रान्ति (विरह) काल के सम्बन्ध में विशेष जानकारी के लिए 'प्रज्ञापनासूत्र' का छठा 'व्युत्क्रान्ति पद' देखना चाहिए।—सं. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org