________________ पंचम शतक : उद्देशक-७] [ 497 सूत्रों में मिथ्यादृष्टि छद्मस्थ हेतु को सम्यतया नहीं जानता-देखता, न ही सम्यक श्रद्धा करता है, न वह हेतु का सम्यक् प्रयोग करके वस्तुतत्त्व को प्राप्त करता है और मिथ्यादष्टि छद्मस्थ होने के नाते सम्यग्ज्ञान न होने से अज्ञानमरणपूर्वक मरता है। इसी प्रकार मिथ्यादृष्टि छद्मस्थ हेतु द्वारा सम्यक ज्ञान और दर्शन नहीं कर पाता, न ही हेतु से सम्यक श्रद्धा करता है, न हेतु के प्रयोग से वस्तुतत्त्व का निश्चय कर पाता है, तथा हेतु का प्रयोग गलत करने से अज्ञानमरणपूर्वक ही मृत्यु प्राप्त करता है। इसके पश्चात्-पिछले चार सूत्रों में से दो सूत्रों में केवलज्ञानी की अपेक्षा से कहा गया है कि केवलज्ञानियों को सकलप्रत्यक्ष होने से उन्हें हेतु की अथवा हेतु द्वारा जानने (अनुमान करने) की आवश्यकता नहीं रहती। केवलज्ञानी स्वयं 'अहेतु' कहलाते हैं / अतः अहेतु से ही वे जानते-देखते हैं, अहेतुप्रयोग से ही वे क्षायिक सम्यादृष्टि होते हैं, इसलिए पूर्ण श्रद्धा करते हैं, वस्तुतत्त्व का निश्चय भी अहेतु से करते हैं, और अहेतु से यानी बिना किसी उपक्रम--हेतु से नहीं मरते, वे निरुपक्रमी होने से किसी भी निमित्त से मृत्यु नहीं पाते। इसलिए अहेतु केवलिमरण है उनका / सातवां और पाठवां सूत्र अवधिज्ञानी मनःपर्यायज्ञानी छद्भस्थ की अपेक्षा से है-वे अहेतु व्यवहार करने वाले जीव सर्वथा अहेतु से नहीं जानते, अपितु कथंचित् जानते हैं, कथंचित् नहीं-- जानते-देखते / अध्यवसानादि उपक्रमकारण न होने से अहेतुमरण, किन्तु छद्मस्थमरण (केवलिमरण नहीं होता है।' इन पाठ सूत्रों के विषय में वृत्तिकार अभयदेवसूरि स्वयं कहते हैं-कि "हमने अपनी समझ के अनुसार इन हेतुओं का शब्दश: अर्थ कर दिया है, इनका वास्तविक भावार्थ बहुश्रुत ही जानते हैं।" पंचम शतक : सप्तम उद्देशक समाप्त / / 12. (क) भगवतीसूत्र अ. वृत्ति, पत्रांक 239 (ख) 'गमनिकामात्रमेवेदम् अष्टानामपि सूत्राणाम्, भावार्थं तु बहुश्रुता विदन्ति।' -~~-भ. अ. वृत्ति, पत्रांक 239 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org