________________ तृतीय से तीसवाँ उद्देशकः -अन्तद्वीप (सूत्र 1-3) 430-432 ___ उपोद्धात 430, एकोरक आदि अट्ठाईस अन्तीपक मनुष्य 430, अन्तर्वीप और वहाँ के निवासी मनुष्य 431, जीवाभिगमसूत्र का प्रतिदेश 431, अन्तपिक मनुष्यों का आहार-विहार आदि 431, वे अन्तर्वीप कहाँ ? 432, छप्पन अन्तर्वीप 432 / इकतीसवाँ उद्देशक - प्रश्रुत्वाकेबली (सूत्र 1-44) 433-457 उपोद्घात 433, केवली यावत् केवली-पाक्षिक उपासिका से धर्मश्रवणलाभालाभ 433, केवली इत्यादि शब्दों का भावार्थ 434, असोच्चा धम्म लभेज्जा सवणयाए तथा नाणावरणिज्जाणं .."खग्रोवसमे का अर्थ 434, केवली आदि से शुद्धबोधि का लाभालाभ 434. केबली आदि से शद्ध अनगारिता का ग्रहण-अग्रण 435, केवली आदि से ब्रह्मचर्य-बास का धारण-अधारण 436, केवली आदि से शुद्ध संयम का ग्रहण-अग्रहण 437, केवली आदि से शुद्ध संवर का आचरण-अनाचरण 438, केवली अादि से ग्राभिनिबोधिक आदि ज्ञान-उपार्जन 438, केवली आदि से ग्यारह बोलों की प्राप्ति और अप्राप्ति 440, केवली आदि से विना सुने केवलज्ञानप्राप्ति वाले को विभंगज्ञान एवं क्रमश: अवधिज्ञान प्राप्त होने की प्रक्रिया 442, 'तस्स छट्ट-छ?णं': प्राशय 443, समुत्पन्न विभंगज्ञान की शक्ति 443, विभंगज्ञान अवधिज्ञान में परिणत होने की प्रक्रिया 443, पूर्वोक्त अवधिज्ञानी में लेश्या, ज्ञान आदि का निरूपण 444, साकारोपयोग एवं अनाकारोपयोग का अर्थ 447, वज्रऋषभनाराच-संहनन ही क्यों ? 447, सवेदी आदि का तात्पर्य 447, प्रशस्त अध्यवसायस्थान ही क्यों? 447, उक्त अवधिज्ञानी को केवलज्ञान-प्राप्ति का क्रम 447, चारित्रात्मा अवधिज्ञानी के प्रशस्त अध्यवसायों का प्रभाव 448, मोहनीयकर्म का नाश, शेष घाति कर्मनाश का कारण 448, केवलज्ञान के विशेषणों का भावार्थ 448, असोच्चा केवली द्वारा उपदेश-प्रव्रज्यासिद्धि आदि के सम्बन्ध में 446, असोच्चा केवली का आचार-विचार, उपलब्धि एवं स्थान 450, सोच्चा से सम्बन्धित प्रश्नोत्तर 451, 'असोच्चा' का अतिदेश 451. केवली आदि से सन कर अवधिज्ञान की उपलब्धि 452, केवली आदि से सुन कर सम्यग्दर्शनादि प्राप्त जीव को अवधिज्ञानप्राप्ति को प्रक्रिया 452, तथारूप अवधिज्ञानी में लेश्या, योग, देह आदि 452, सोच्चा केवली द्वारा उपदेश, प्रव्रज्या, सिद्धि प्रादि के सम्बन्ध में 454, सोच्चा अवधिज्ञानी के लेश्या प्रादि का निरूपण 456, असोच्चा से सोच्चा अवधिज्ञानी की कई बातों में अन्तर 456 / बत्तीसवाँ उद्देशक-गांगेय (सूत्र 1-56) 458-507 उपोद्घात 458, चौवीस दण्डकों में सान्तर-निरन्तर-उपमात-उद्वर्तन-प्ररूपणा 458, उपपातउद्वर्तन : परिभाषा 460, सान्तर और निरन्तर 460, एकेन्द्रिय जीवों की उत्पत्ति और मृत्यु 460, प्रवेशनक : चार प्रकार 460, नैरयिक-प्रवेशनक निरूपण 461, नैरयिक-प्रवेशनक सात ही क्यों ? 461, एक नैरयिक के प्रवेशनक-भंग 461, एक नैरयिक के असंयोगी सात प्रवेशनक-भंग 461, दो नैरयिकों के प्रवेशनक-भंग 461, तीन नैरयिकों के प्रवेशनक-भंग 463, चार नैरयिकों के प्रवेशनकभंग 466, चार नैरयिकों के त्रिकसंयोगी भंग 471, पंच नैरयिकों के प्रवेशनकभंग 471. पंच नैरयिकों के द्विकसंयोगी भंग 474, पांच नैरयिकों के त्रिकसंयोगी भंग 474, पांच नैरयिक के चतु:संयोगी भंग 475, पंच नरयिकों के पंचसंयोगी भंग 476, पांच नैरयिकों के समस्त भंग 477, छह [27] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org