________________ कारण 365, ज्ञानावरणीयादि अष्ट-कर्मणशरीर-प्रयोगबन्ध देशबन्ध होता है, सर्वबन्ध नहीं 365, आयुकर्म के देशबन्धक 365, कठिन शब्दों की व्याख्या 365, पांच शरीरों के एक दूसरे के साथ बन्धक-प्रबन्धक की चर्चा-विचारणा 366, पांच शरीरों में परस्पर बन्धक-प्रबन्धक 400, तैजसकार्मणशरीर का देशबन्धक औदारिकशरीर का बन्धक और प्रबन्धक कैसे ? 400, औदारिक आदि पांच शरीरों के देश-सर्वबन्धकों एवम् प्रबन्धकों के अल्पबहुत्व की प्ररूपणा 400, अल्पबहुत्व का कारण 401 / वशम उद्देशक--आराधना (सूत्र 1-61) 402- 422 श्रुत और शील की आराधना-विराधना की दृष्टि से भगवान् द्वारा अन्यतीथिकमतनिराकरणपूर्वक स्वसिद्धान्तनिरूपण 402, अन्यतीथिकों का श्रुत-शीलसम्बन्धी मत मिथ्या क्यों ? 403, व त-शील की चतुर्भगी का प्राशय 404, ज्ञान-दर्शन-चारित्र की आराधना, इनका परस्पर सम्बन्ध एवं इनकी उत्कृष्ट-मध्यम-जघन्याराधना का फल 405, अाराधना : परिभाषा, प्रकार और स्वरूप 408, आराधना के पूर्वोक्त प्रकारों का परस्पर सम्बन्ध 408, रत्नत्रय की त्रिविध आराधनाओं का उत्कृष्ट फल 406, पुद्गल-परिणाम के भेद-प्रभेदों का निरूपण 406, पुद्गलपरिणाम की व्याख्या 410, पुद्गलास्तिकाय के एक देश से लेकर अनन्त प्रदेश तक अष्टविकल्पात्मक प्रश्नोत्तर 410, किसमें कितने भंग ? 411, लोकाकाश के और प्रत्येक जीव के प्रदेश 412, लोकाकाशप्रदेश और जीवप्रदेश की तुल्यता 412, आठ कर्मप्रकृतियाँ, उनके अविभाग-परिच्छेद और आवेष्टितपरिवेष्टित समस्त संसारी जीव 412. अविभाग-परिच्छेद की व्याख्या 414, आवेष्टित-परिवेष्टित के विषय में विकल्प 415, आठ कमों के परस्पर सहभाव की वक्तव्यता 415, 'नियमा' और 'भजना' का अर्थ 416, किसमें किन-किन कर्मों की नियमा और भजना 416, ज्ञानावरणीय से 7 भंग 416, दर्शनावरणीय से 6 भंग 416, वेदनीय से 5 भंग 420, मोहनीय से 4 भंग 420, आयुष्यकर्म से 3 भंग 420, नामकर्म से दो भंग 420, गोत्रकर्म से एक भंग 420, संसारी और सिद्धजीव के पुद्गली और पुद्गल होने का विचार 420, पुद्गली एवं पुद्गल की व्याख्या 422 / नवम शतक 423-575 प्राथमिक 423 नवम शतकगत चौतीस उद्देशकों का संक्षिप्त परिचय नौवें शतक की संग्रहणी गाथा 425 प्रथम उद्देशक-जम्बूद्वीप (सूत्र 2-3) 425-426 . मिथिला में भगवान का पदार्पण : अतिदेशपूर्वक जम्बूद्वीप निरूपण 425 सधुव्वावरेणं व्याख्या 426, चौदह लाख छप्पन हजार नदियाँ 426, जम्बूद्वीप का आकार 426 / द्वितीय उद्देशक ---ज्योतिष (सूत्र 1-5) 427-426 __जम्बूद्वीप आदि द्वीप-समुद्रों में चन्द्र आदि की संख्या 427, जीवाभिगमसूत्र का प्रतिदेश 428, नव य सया पण्णासा० इत्यादि पंक्ति का प्राशय 426, सभी द्वीप-समुद्रों में चन्द्र आदि ज्योतिष्कों का अतिदेश 426 / [26] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org