________________ 42] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र समुद्र ही हैं। इससे आगे द्वीप और समुद्रों का अभाव है.' उनकी यह बात इस प्रकार कैसे मानी जाए? विवेचन-शिवराजर्षि का अतिशय ज्ञान का दावा और लोकचर्चा-प्रस्तुत तीन सूत्रों में तीन घटनाओं का उल्लेख है-(१) शिवराजषि को विभंगज्ञान की उत्पत्ति, (2) उनके द्वारा हस्तिनापुर में अतिशय ज्ञानप्राप्ति का दावा और (3) जनता में परस्पर चर्चा / ' कठिन शब्दों का अर्थ-अज्झस्थिए-अध्यवसाय, विचार / अतिसेसे—अतिशय / वोच्छिण्णे विच्छेद है-अभाव है / तावसावसहे-तापसों के आवसथ (पाश्रम) में / ' भगवान् द्वारा असंख्यात द्वीपसमुद्र-प्ररूपणा 19. तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे / परिसा जाव पडिगया। [16] उस काल और उस समय में श्रमण भगवान् महावीरस्वामी वहाँ पधारे / परिषद् ने धर्मोपदेश सुना, यावत् वापस लौट गई। 20. तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेठे अंतेवासी जहा बितियसए नियंठुद्देसए (स. 2 उ. 5 सु. 21-24) जाव अडमाणे बहुजणसई निसामेति-बहुजणो अन्नमन्नस्स एवं आइक्खति जाव एवं परूवेइ 'एवं खलु देवाणुप्पिया ! सिबे रायरिसी एवं आइक्खइ जाव परूवेइ--अस्थि णं देवाणुप्पिया! तं चेव जाव वोच्छिन्ना दीवा य समुद्दा 5 / से कहमेयं मन्ने एवं ?' 20] उस काल और उस समय में श्रमण भगवान महावीरस्वामी के ज्येष्ठ अन्तेवासी इन्द्रभूति अनगारने, दूसरे शतक के निर्ग्रन्थोडे शक (श.२ उ. 5 स. 21-24) में वणित विधि के अनुसार यावत् भिक्षार्थ पर्यटन करते हुए, बहुत-से लोगों के शब्द सुने / वे परस्पर एक दूसरे से इस प्रकार कह रहे थे, यावत् इस प्रकार बतला रहे थे हे देवानुप्रियो ! शिवराजर्षि यह कहते हैं, यावत् प्ररूपणा करते हैं कि 'हे देवानुप्रियो ! इस लोक में सात द्वीप और सात समुद्र हैं; इत्यादि, यावत उससे आगे द्वीप-समुद्र नहीं हैं, तो उनकी यह बात कैसे मानी जाए ?' 21. तए णं भगवं गोयमे बहुजणस्स अंतियं एयमढे सोच्चा निसम्म जायसड्ढे जहा नियंठइसए (स. 2 उ. 5. सु. 25 [1]) जाव तेण परं वोच्छिन्ना दीवा य समुद्दा य / से कहमेयं भंते ! एवं ? 'गोयमा !'दी समणे भगवं महावीरे भगवं गोयम एवं वदासी-जं णं गोयमा ! से बहुजणे अन्नमन्नस्स एवमाइक्खति तं चेव सव्वं भाणियन्वं जाब भंडनिक्लेवं करेति, हथिणापुरे नगरे सिंघाडग० तं चेव जाव वोच्छिन्ना दीवा य समुद्दा य / तए णं तस्स सिवस्स रायरिसिस्स अंतिए एयमठ्ठ सोच्चा निसम्म तं चेव जाव तेण परं वोच्छिन्ना दीवा य समुद्दा य / तं णं मिच्छा / अहं पुण गोयमा! एवमाइक्खामि जाव परूवेमि-एवं खलु जंबुद्दीवादीया दीवा लवणादीया समुद्दा संठाणओ 1. वियाहपण्यत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण), भा. 2, पृ. 522-523 2. भगवती, विवेचन (पं. घेवरचन्दजी), भा. 4, पृ. 1887 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org