________________ ग्यारहवां शतक : उद्देशक-९] [41 ईहापोहमग्गणगवेसणं करेमाणस्स विभंगे नामं अन्नाणे समुष्पन्ने / से णं तेण विभंगनाणेणं समुप्पन्नेणं पासति अस्सि लोए सत्त दोवे सत्त समुद्दे / तेण परं न जागति न पासति / [16] इसके बाद निरन्तर (लगातार) बेले-बेले की तपश्चर्या से दिकचक्रवाल का प्रोक्षण करने से, यावत् आतापना लेने से तथा प्रकृति की भद्रता यावत् विनीतता से शिव राषि को किसी दिन तदावरणीय कर्मों के क्षयोपशम के कारण ईहा, अपोह, मार्गणा और गवेषणा करते हुए विभंग ज्ञान (कुप्रवधिज्ञान) उत्पन्न हुआ। उस उत्पन्न हुए विभंगज्ञान से वे इस लोक में सात द्वीप और सात समुद्र देखने लगे। इससे आगे वे न जानते थे, न देखते थे / 17. तए णं तस्स सिवस्स रायरिसिस्स अयमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था- अस्थि णं ममं अतिसेसे नाण-दसणे समुष्पन्ने, एवं खलु अस्सि लोए सत्त दीवा, सत्त समुद्दा, तेण परं दोच्छिन्ना दोवा य समुद्दा य। एवं संपेहेइ, एवं सं० 2 आयावणभूमोसो पच्चोरुभति, आ० प० 2 वागलवत्थनियत्थे जेणेव सए उडए तेणेव उवागच्छति, ते० उ०२ सुबहुं लोहोलोहकडाहकडुच्छुयं जाव भंडगं किढिणसंकाइयं च गेण्हति, गे० 2 जेणेव हस्थिणापुरे नगरे जेणेव तावसावसहे तेणेव उवागच्छति, ते० उ० 2 भंडनिक्खेवं करेइ, भंड० क० 2 हथिणापुरे नगरे सिंघाडग-तिग जाव पहेसु बहुजणस्स एवमाइक्खति जाव एवं परवेइ-अस्थि णं देवाणुप्पिया! ममं अतिसेसे नाण-दसणे समुप्पन्ने, एवं खलु अस्सि लोए जाव दीवा य समुद्दा य / [17] तत्पश्चात् शिवराजर्षि को इस प्रकार का विचार यावत् उत्पन्न हुआ कि "मुझे अतिशय ज्ञान-दर्शन उत्पन्न हुया है / इस लोक में सात द्वीप और सात समुद्र हैं / उससे आगे द्वीपसमुद्रों का विच्छेद (अभाव) है।" ऐसा विचार कर वे आतापना-भूमि से नीचे उतरे और वल्कलवस्त्र पहने, फिर जहाँ अपनी कुटी थी, वहाँ आए। वहाँ से अपने लोढी, लोहे का कडाह, कुड़छी आदि बहुत-से भण्डोपकरण तथा छबड़ी-सहित कावड़ को लेकर वे हस्तिनापुर नगर में जहाँ तापसों का प्राश्चम था, वहाँ पाए / वहाँ अपने तापसोचित उपकरण रखे और फिर हस्तिनापुर नगर के शृगाटक, त्रिक यावत् राजमार्गों में बहत-से मनुष्यों को इस प्रकार कहने और यावत् प्ररूपणा करने लगे—'हे देवानुप्रियो ! मुझे अतिशय ज्ञान-दर्शन उत्पन्न हुआ है, जिससे मैं यह जानता और देखता हैं कि इस लोक में सात द्वीप और सात समुद्र हैं।' 18. तए णं तस्स सिवस्स रायरिसिस्स अंतियं एयमलें सोच्चा निसम्म हस्थिणापुरे नगरे सिंघाडग-तिग जाव पहेसु बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खति जाव परुवेइ–एवं खलु देवाणुप्पिया ! सिवे रायरिसी एवं आइक्खइ जाव परूवेइ 'अस्थि णं देवाणप्पिया! ममं अतिसेसे नाण-दसणे जाव तेण परं वोच्छिन्ना दीवा य समुद्दा य' / से कहमेयं मन्ने एवं ? [18] तदनन्तर शिवराजर्षि से यह (उपर्युक्त) बात सुनकर और विचार कर हस्तिनापुर नगर के शृगाटक, त्रिक यावत् राजमार्गों पर बहुत-से लोग एक दूसरे से इस प्रकार कहने यावत् बतलाने लगे हे देवानुप्रियो ! शिवराजर्षि जो इस प्रकार की बात कहते यावत्' प्ररूपणा करते हैं कि 'देवानुप्रियो ! मुझे अतिशय ज्ञान-दर्शन उत्पन्न हुआ है, यावत् इस लोक में सात द्वीप और सात Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org