________________ 40] [ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र [14] तदनन्तर उन शिवराजषि ने तृतीय बेला (छट्ठपखमण तप) अंगीकार किया। उसके पारणे के दिन शिवराजर्षि ने पूर्वोक्त सारी विधि की। इसमें इतनी विशेषता है कि पश्चिमदिशा की पूजा की और प्रार्थना की-हे पश्चिम दिशा के लोकपाल वरुण महाराज! परलोक-साधना-मार्ग में प्रवृत्त मुझ शिवराजर्षि की रक्षा कर, इत्यादि यावत् तब स्वयं प्राहार किया। 15. तए गं से सिवे रायरिसी चउत्थं छट्ठक्खमणं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ / तए णं से सिवे रायरिसी चउत्थं छटुक्खमणं० एवं तं चेव, नवरं उत्तरं दिसं पोक्खेइ / उत्तराए दिसाए वेसमणे महाराया पत्थाणे पत्थियं अभिरक्खउ सिवं०, सेसं तं चैव जाव ततो पच्छा अप्पणा पाहारमाहारेति / [15] तत्पश्चात उन शिवराजर्षि ने चतुर्थ बेला (छट्रक्खमण तप) अंगीकार किया / फिर इस चौथे बेले के तप के पारणे के दिन पूर्ववत् सारी विधि की / विशेष यह है कि उन्होंने (इस बार) उत्तरदिशा की पूजा की और इस प्रकार प्रार्थना की हे उत्तरदिशा के लोकपाल वैश्रमण महाराज! परलोक-साधना-मार्ग में प्रवृत्त इस शिवराजर्षि की रक्षा करें, इत्यादि अवशिष्ट सभी वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए यावत् तत्पश्चात् शिवराजषि ने स्वयं आहार किया। विवेचन--शिवराजर्षि द्वारा चार छटुक्खमण तप द्वारा दिशाप्रोक्षण--प्रस्तुत चार सूत्रों (12 से 15 तक) में शिवराजर्षि द्वारा क्रमश: एक-एक बेले के पारणे के दिन एक-एक दिशा के प्रोक्षण की की गई तापसचर्या का वर्णन है। __ कठिन शब्दों का भावार्थ वागलवथनियत्थे-- वल्कलवस्त्र पहने। उडए—उटज-कुटी / किढिणसंकाइयगं-- बांस का बना हुआ तापसों का पात्र-विशेष, (छवडी) और सांकायिक (कावड़भार ढोने का यंत्र) / पोक्खेइ-प्रोक्षण (पूजन किया। पत्थाणे--परलोक-साधना-मार्ग में / पत्थियंप्रस्थित-प्रवत्त / दम्भे-मूलसहित दर्भ-डाभ को। समिहामो समिधा की लकड़ी। पत्तामोडंवक्ष की शाखा से मोड़े हुए पत्ते / दि बढेति---वेदी (देवार्चनस्थान) को वर्धनी-बुहारी से साफ (प्रमाजित किया। उवलेवण-सम्मज्जणं-गोबर प्रादि से लेपन तथा जल से सम्मान (शोधनशुद्धि) किया। दब्भ-कलसाहत्थगए-कलश में दर्भ डाल कर हाथ में लिये हुए। प्रोगाहह-अवगाहन (प्रवेश किया। आयंते-पाचमन किया। चोक्खे अशुचिद्रव्य हटाकर शुद्ध हए / परमसुइभएअत्यन्त शुद्ध हुए। देवत-पिति-कयकज्जे–देवता और पितरों को जलांजलिदानादि का कार्य किया। सरएणं अणि महेति—शरक = मथनकाष्ठ से अरणि की लकड़ी को मथा-घिसा / समादहेसन्निधापन किये-रखे / सकहं सकथा (उपकरण—विशेष) / ठाणं-ज्योति-स्थान (या पात्रस्थान) दीप / सेज्जाभंडं शय्या के उपकरण / दंडदार-लकड़ी का डंडा, दण्ड / चर साहेइचरू (बलिद्रव्य के पात्र) में बलिद्रव्य को सिझाया, / बलि वइस्सदेवं करेइ-बलि से अग्निदेव की पूजा की।' विभंगज्ञान प्राप्त होने पर राजर्षि का प्रतिशय ज्ञान का दावा और जनवितर्क 16. तए णं तस्स सिवस्स रायरिसिस्स छठंछट्टेणं अनिक्खित्तेणं दिसाचक्कवालेणं जाव आयावेमाणस्स पगतिभद्दयाए जाव विणीययाए अन्नया कदायि तयावरणिज्जाणं कम्माणं खयोवसमेणं 1. भगवती. अ. वत्ति, पत्र 5.20 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org