SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1304
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ग्यारहवां शतक : उद्देशक-९] [12] तत्पश्चात् वह शिवराजर्षि प्रथम छटु (बेले) के पारणे के दिन आतापना भूमि से नीचे उतरे, फिर उन्होंने वल्कलवस्त्र पहिने और जहाँ अपनी कुटी थी, वहाँ आए / वहाँ से किढीण (बांस का पात्र-छबड़ी) और कावड़ को लेकर पूर्वदिशा का पूजन किया। (इस प्रकार प्रार्थना की-) हे पूर्वदिशा के (लोकपाल) सोम महाराजा ! प्रस्थान (परलोक-साधना मार्ग) में प्रस्थित(प्रवृत्त) हुए मुझ शिवराजर्षि को रक्षा करें, और यहाँ (पूर्वदिशा में) जो भी कन्द, मूल, छाल, पत्ते, पूष्प, फल, बोज और हरी वनस्पति (हरित) हैं, उन्हें लेने की अनुज्ञा दें; यों कह कर शिवराषि ते पर्वदिशा का अवलोकन किया और वहाँ जो भी कन्द, मुल. यावत हरी बनस्पति मिली, उसे ग्रहण की और कावड़ में लगी हुई बांस की छबड़ी में भर ली। फिर दर्भ (डाभ), कुश, समिधा और वृक्ष की शाखा को मोड़ कर तोड़े हुए पत्ते लिए और जहाँ अपनी कुटी थी, वहाँ आए / कावड़ सहित छबड़ी नीचे रखी, फिर वेदिका का प्रमार्जन किया, उसे लीप कर शुद्ध किया। तत्पश्चात् डाभ और कलश हाथ में ले कर जहाँ गंगा महानदी थी, वहाँ आए / गंगा महानदी में अवगाहन किया और उसके जल से देह शुद्ध को / फिर जलक्रीड़ा की, पानी अपने देह पर सींचा, जल का आचमन आदि करके स्वच्छ और परम पवित्र (शुचिभूत) होकर देव और पितरों का कार्य सम्पन्न करके कलश में डाभ डालकर उसे हाथ में लिए हुए गंगा महानदी से बाहर निकले और जहाँ अपनी कुटी थी, वहाँ आए / कुटी में उन्होंने डाभ, कुश और बालू से वेदी बनाई / फिर मथनकाष्ठ से अरणि की लकड़ी घिसी (मथन किया) और प्राग सुलगाई / अग्नि जब धधकने लगी तो उसमें समिधा की लकड़ी डाली और आग अधिक प्रज्वलित की / फिर अग्नि के दाहिनी ओर ये सात वस्तुएँ (अंग) रखीं, यथा---(१) सकथा (उपकरण—विशेष), (2) वल्कल, (3) स्थान (4) शय्याभाण्ड, (5) कमण्डलु, (6) लकड़ी का डंडा और (7) अपना शरीर / फिर मधु, घी और चावलों का अग्नि में हवन किया और चरु (बलिपात्र) में बलिद्रव्य ले कर बलिवैश्वदेव (अग्निदेव) को अर्पण किया और तब अतिथि की पूजा की और उसके बाद शिवराजर्षि ने स्वयं आहार किया। 13. तए णं से सिके रायरिसो दोच्चं छट्ठक्खमणं उक्संपज्जित्ताणं विहरइ / तए णं से सिवे रायरसी दोच्चे छट्ठक्खमणपारणगंसि आयावणभूमीतो पच्चोल्हा, प्रा०प० 2 वागल० एवं जहापढमपारणगं, नवरं दाहिणं दिसं योक्खेति / दाहिणाए दिसाए जमे महाराया पत्थाणे पत्थियं०, सेसं तं चेव जाव आहारमाहारेइ। [13] तत्पश्चात् उन शिवराजर्षि ने दूसरी बेला (छट्टक्खमण) अंगीकार किया और दूसरे बेले के पारणे के दिन शिवराजर्षि प्रातापनाभूमि से नीचे उतरे, वल्कल के वस्त्र पहने, यावत् प्रथम पारणे को जो विधि को थो, उसो के अनुसार दूसरे पारणे में भी किया। इतना विशेष है कि दूसरे पारणे के दिन दक्षिण दिशा की पूजा की / हे दक्षिण दिशा के लोकपाल यम महाराजा! परलोकसाधना में प्रवृत्त मुझ शिवराजर्षि की रक्षा करें, इत्यादि शेष सब पूर्ववत् जानना चाहिए; यावत् अतिथि की पूजा करके फिर उसने स्वयं प्राहार किया। 14. तए णं से सिवे रायरिसी तच्च छ?क्खमणं उवसंपज्जित्ताणं विहरति / तए णं से सिवे रायरिसी० सेसं तं चेव, नवरं पच्चस्थिमं दिसं पोक्खेति / पच्चत्थिमाए दिसाए वरुणे महाराया पत्थाणे पस्थियं अभिरक्खतु सिवं० सेसं तं चेव जाव ततो पच्छा अप्पणा आहारमाहारेइ / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy