________________ 38] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र विवेचन-शिवराज द्वारा सर्वानुमतिपूर्वक तापस-प्रव्रज्याग्रहण प्रस्तुत 11 वे सूत्र में शिवराजषि की तापसदीक्षा के सन्दर्भ में पहले उसके द्वारा स्वजन-सम्बन्धियों को आमंत्रण, भोजन, सत्कार-सम्मान, प्रव्रज्याग्रहण की अनुमति, फिर स्वयं तापसोचित उपकरण लेकर गंगातटवासी दिशाप्रोक्षक-तापसों से तापस-दीक्षा ग्रहण एवं यावज्जीव छ?तप का संकल्प आदि का वर्णन किया गया है। कठिन शब्दों का अर्थ-सोभणसि-शुभ या प्रशस्त / उवक्खडावेति तैयार कराया / वाणपत्था–वानप्रस्थतापस (वानप्रस्थ नामक तृतीय आश्रम को अंगीकार किये हुए) / अभिग्गहं— अभिग्रह--एक प्रकार का संकल्प या प्रतिज्ञा। शिवराजषि द्वारा विशाप्रोक्षणतापसचर्या का वर्णन 12. तए णं से सिवे रायरिसी पढमछट्टक्खमणपारणगंसि आयावणभूमोओ पच्चोरुहति, आया० 102 वागलवथनियत्थे जेणेव सए उडए तेणेव उवागच्छति, ते० उ० 2 किढिणसंकाइयगं गिण्हइ, कि० गि०२ पुरस्थिमं दिसं पोक्खेइ / 'पुरस्थिमाए दिसाए सोमे महाराया पत्थाणे पत्थियं अभिरक्खउ सिवं रायरिसि, अमिरक्खउ सिवं रायरिसि, जाणि य तत्थ कंदाणि य मूलाणि य तयाणि य पत्ताणि य पुष्पाणि य फलाणि य बोयाणि य हरियाणि य ताणि अणुजाणतु' ति कटु पुरस्थिमं दिसं पासति, पा० 2 जाणि य तत्थ कंदाणि य जाव हरियाणि य ताई गेण्हति / गे० 2 किढिणसंकाइयगंभरेति. किढि० भ०२ दन्भे य कसे य समिहाओ य पत्तामोडंच गेण्हह, गे०२ जेणव सए उडए तेणेव उवागच्छद, ते उवा० 2 कि दिणसंकाइयगं ठवेइ, किढि० ठवेत्ता वेदि वड्डेति, वेदि व० 2 उवलेवणसम्मज्जणं करेति, उ० क० 2 दब्भ-कलसाहत्थगए जेणेव गंगा महानदी तेणेव उवागच्छइ, उवा० 2 गंगामहानदि ओगाहइ, गंगा० ओ० 2 जलमज्जणं करेति, जल० क० 2 जलकोडं करेति, जल० क०२ जलाभिसेयं करेति, ज० क० 2 आयंते चोक्खे परमसूइभूते देवत-पितिकयकज्जे दम्भसगम्भकलसाहत्थगते गंगाओ महानदीओ पच्चुत्तरति, गंगा०प० 2 जेणेव सए उडए तेणेव उवागच्छति, उवा० 2 दम्भेहि य कुसेहि य वालुयाए य वेदि रएति, वेदि र०२ सरएणं अणि महेति, स० म०२ अग्गि पाडेति, अग्गि पा० 2 अग्गि संघुक्केति, अ० सं० 2 समिहाकट्ठाइं पक्खिवइ, स०प० 2 अग्गि उज्जालेति, अ० उ० २अग्गिस्स दाहिणे पासे, सत्तंगाई समादहे / तं जहा सकहं 1 वक्कलं 2 ठाणं 3 सेज्जाभंड 4 कमंडल 5 / दंडदारु 6 तहप्पाणं 7 अहेताई समादहे // 1 // महुणा य घएण य तंदुलेहि य अग्गि हुणइ, अ० हु० 2 चरु साहेइ, चरु सा० 2 बलि वइस्सदेवं करेइ, बलि० क० 2 अतिहिपूयं करेति, अ० क० 2 ततो पच्छा अप्पणा आहारमाहारेति / 1. वियाहपण्णप्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पण), भा. 2, पृ. 519-520 2. भगवती. विवेचन, भा. 4, पृ. 1881 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org