SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 1308
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ग्यारहवां शतक : उद्देशक-९] एगविहिविहाणा, वित्थारओ अणेगविहिविहाणा एवं जहा जीवाभिगमे' जाव सयंभुरमणपज्जवसाणा अल्सि तिरियलोए असंखेज्जा दोवसमुद्दा पण्णत्ता समणाउसो!। 21] वहुत-से मनुष्यों से यह बात सुन कर और विचार कर गौतम स्वामी को संदेह, कुतूहल एवं यावत श्रद्धा उत्पन्न हुई। वे निम्रन्थोद्देशक (शतक 2 उ. 5, सू. 25-1) में वर्णित वर्णन के अनुसार भगवान् की सेवा में आए और पूर्वोक्त बात के विषय में पूछा--'शिव राजर्षि जो यह कहते हैं, यावत् उससे आगे द्वीपों और समुद्रों का सर्वथा अभाव है, भगवन् ! क्या उनका ऐसा कथन यथार्थ है ? [उ.] भगवान महावीर ने गौतम आदि को सम्बोधित करते हुए इस प्रकार कहा—'हे गौतम ! जो ये बहुत-से लोग परस्पर ऐसा कहते हैं यावत् प्ररूपणा करते हैं (इत्यादि) शिव राजषि को विभंगज्ञान उत्पन्न होन से लेकर यावत् उन्होंने तापस-नाश्रम में भण्डोपकरण रखे / हस्तिनापुर नगर में शृ गाटक, त्रिक यादि राजमार्गों पर वे कहने लगे यावत् सात द्वीप-समुद्रों से आगे द्वीपसमुद्रों का अभाव है, इत्यादि सब पूर्वोक्त कहना चाहिए। तदनन्तर शिव राजर्षि से यह बात सुनकर बहुत से मनुष्य ऐसा कहते हैं, यावत् उससे आगे द्वीप-समुद्रों का सर्वथा अभाव है।' (यह जो जनता में चर्चा है) वह कथन मिथ्या है / हे गौतम ! मैं इस प्रकार कहता हूँ, यावत् प्ररूपणा करता हूँ कि वास्तव में जम्बूद्वीपादि द्वीप एवं लवणादि समुद्र एक सरीखे वृत्त (गोल) होने से आकार (संस्थान) में एक समान हैं परन्तु विस्तार में (एक दूसरे से दुगुने-दुगुने होने से) वे अनेक प्रकार के हैं, इत्यादि सभी वर्णन जीवाभिगम में कहे अनुसार जानना चाहिए, यावत् “हे प्रायुष्मन् श्रमणो! इस तिर्यक लोक में असंख्यात द्वीप और समुद्र हैं।' विवेचन—गौतमस्वामी द्वारा शिवराजर्षि को उत्पन्न ज्ञान का भगवान से निर्णय प्रस्तुत तीन सूत्रों (16-20-21) में चार तथ्यों का निरूपण किया गया है-(१) भगवान का हस्तिनापूर (2) गौतमस्वामी द्वारा जनता से शिवराषि को उत्पन्न अतिशय ज्ञान की चर्चा का श्रवण, (3) अपनी शंका भगवान् के समक्ष प्रस्तुत करना, (4) भगवान् द्वारा शिवराजर्षि का अतिशय ज्ञान होने का दावा मिथ्या होने का कथन / ' कठिन शब्दों का भावार्थ---एकविहिविहाणा-सभी गोल होने से सभी एक ही प्रकार के व्यवहार -- आकार वाले / विस्थारओ-विस्तार से / पज्जवसाणा--पर्यन्त / ' द्वोप-समुद्रगत द्रव्यों में वर्णादि को परस्परसम्बद्धता 22. अस्थि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे दवाई सवण्णाई पि अवण्णाई पि, सगंधाई पि अगंधाई 1. देखिये जीवाभिगमसूत्र प्रति. 3, उ. 1, सु 123 में—"दुगुणादुगुणं पडुःपाएमाणा पवित्थरमाणा ओभासमाण बीइया..." . बहुध्पलकुमुदनलिणसुभगसोगंधियडरीयमहापुंडरीयसयपत्तसहस्सपत्तसयसहस्सपत्तपफुल्लकेसरोबबेया ....."पत्त यं पत्त यं पउमवरवेइयापरिविखत्ता पत्त यं पतयं वणसंडपरिक्खित्ता।" 2. वियाहपण्णत्तिसुत्तं (मूलपाठ-टिप्पणयुक्त), भा. 2, पृ. 523 3. भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 520 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy