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________________ चौबीसवां शतक : उद्देशक 21] [256 16. एवं जाव अच्चुयदेवो, नवरं ठिति अणुबंधं संवेहं च जाणेज्जा / पाणयदेवस्स ठिती तिउणा-सद्धि सागरोवमाई, पारणगस्स तेवद्धि सागरोवमाई, अच्चुयदेवस्स छाढि सागरोषमाई। [19] इसी प्रकार यावत् अच्युतदेव तक जानना चाहिए / विशेष यह है कि इनकी स्थिति, अनुबन्ध और संवेध, भिन्न-भिन्न जानने चाहिए। प्राणतदेव की स्थिति को तीन गुणी करने पर साठ सागरोपम, आरणदेव की स्थिति को तीन गुणी करने पर तिरेसठ (63) सागरोपम और अच्युतदेव की स्थिति को तीन गुणी करने पर छासठ (66) सागरोपम की हो जाती है। 20. जदि कप्पातीतवेमाणियदेवेहितो उक्व० कि गेवेज्जकप्पातीत०, अगुत्तरोववातियकप्पातीत०? गोयमा ! गेवेज्ज० अणुत्तरोववा० / / 20 प्र. भगवन् ! यदि वे मनुष्य कल्पातीत वैमानिक देवों से आकर उत्पन्न होते हैं तो क्या देयक-कल्पातीत देवों से आकर उत्पन्न होते हैं, अथवा अनुत्तरौपपातिक देवों से आकर उत्पन्न होते हैं ? [20 उ.] गौतम ! वे (मनुष्य) में वेयक और अनुत्तरौपपातिक दोनों प्रकार के कल्पातीत देवों से आकर उत्पन्न होते हैं। 21. जइ गेवेज्ज० कि हेछिमहेटिमगेवेज्जकापातीत० जाव उवरिमउधरिभगेवेन्ज.? गोयमा ! हेद्विमहेट्टिमगेवेज्ज० जाव उवरिमउरिम०। [21 प्र.] यदि वे (मनुष्य), ग्रे वेयक-कल्पातीत देवों से आकर उत्पन्न होते हैं, तो क्या वे अधस्तन-अधस्तन (सबसे नीचे के) गं बेयक-कल्पा० देवों से पाकर उत्पन्न होते हैं, अथवा यावत उपरितन-उपरितन (सबसे ऊपर के) ग्रे कल्पातीत देवों से आकर उत्पन्न होते हैं ? [21 उ.] गौतम ! वे (मनुष्य), अधस्तन-अधस्तन यावत् उपरितन-उपरितन ग्रं. कल्पा. देवों से भी आकर उत्पन्न होते हैं ! 22. गेवेज्जगदेवे णं भंते ! जे भविए मणुस्सेसु उपज्जित्तए से णं भंते ! केवतिका ? __ गोयमा ! जहन्नेणं वासपुहत्तद्वितीएस, उक्कोसेणं पुवकोडि० / अवसेसं जहा आणयदेवस्स वत्तव्वया, नवरं प्रोगाणा, गोयमा ! एगे भवधारणिज्जे सरीरए से जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जहभागं, उक्कोसेणं दो रयणीयो। संठाणं गोयमा ! एगे भवधारणिज्जे सरीरए से समचउरंससंठिते पन्नते। पंच समुग्घाया पन्नता, तं जहा -वेयणासमुग्घाए जाव तेथगसमु०, नो चेव गं वेउन्विय-तेयगसमुग्धाएहि समोहन्निसु वा, समोहन्नंति का, समोह णिस्संति बा, ठिति-अणुबंधा जहन्नेणं बावीसं सागरोवमाई, उक्कोसेणं एक्कतोसं सागरोवमाई। सेसं तं चेव / कालाएसेणं जहन्नेणं बावीसं सागरोवमाइं बासपुहत्तमभहियाई, उक्कोसेणं तेणउति सागरोवमाइं तिहिं पुष्वकोडोहिं प्रभहियाई; एवतियं० / एवं सेसेसु वि अटुगमएसु, नवरं ठिति सवेहं च जाणज्जा। 22 प्र.] भगवन् ! वेयक देव, जो मनुष्यों में उत्पन्न होने योग्य है, वह कितने काल की स्थिति वाले मनुष्यों में उत्पन्न होता है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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