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________________ सोलहवां शतक : उद्देशक 4] [555 छठे शतक के (प्रथम उद्देशक सू. 4) के अनुसार यावत् वे महापर्यवसान वाले होते हैं। इसीलिए हे गौतम ! ऐसा कहा गया है कि अन्नग्लायक श्रमण निर्ग्रन्थ जितने कर्मों का क्षय करता है, इत्यादि, यावत् उतने कर्मों का नैरयिक जीव कोटाकोटी वर्षों में भी क्षय नहीं कर पाते / हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है. यों कह कर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन--प्रस्तुत सात सूत्रों (1 से 7 तक) में दीर्घकाल तक घोर कष्ट में पड़ा हुया नारक लाखों-करोड़ों वर्षों में भी उतने कर्मों का क्षय नहीं कर पाता, जितने कर्मों का क्षय तपस्वी श्रमण निर्ग्रन्थ अल्प काल में और अल्प कष्ट से कर देता है, इस तथ्य को भगवान ने वृद्ध और तरुण पुरुष के, तथा घास के पूले और पानी की बूदों का दृष्टान्त देकर युक्तिपूर्वक सिद्ध किया है। इसका विस्तृत वर्णन छठे शतक के प्रथम उद्दे शक में कर दिया गया है / ' अग्ण गिलायए-अन्नग्लायक : दो विशेषार्थ-(१) अन्न के विना ग्लानि को पाने वाला / इसका आशय यह है कि जो भूख से इतना आतुर हो जाता है कि गृहस्थों के घर में रसोई बन जाए, तब तक भी प्रतीक्षा नहीं कर सकता, ऐसा भूख सहने में असमर्थ साधु कूरगडूक मुनि की तरह, गृहस्थों के घर से पहले दिन का बना हुआ बासी करादि (अन्न या पके हुए चावल) ला कर प्रात: काल ही खाता है. वह अन्नग्लायक है।(२) चणिकार के मतानसार-भोजन के प्रति इतना निःस्पृह है कि जैसा भी अन्त, प्रान्त, ठंडा, बासी अन्न मिले उसे निगल जाता है, वह अन्न गिलायक है। कठिनशब्दार्थ-जावतियं-जितने / एवतियं-इतने / जुण्णे-जीर्ण-वृद्ध / जराजज्जरियदेहे-बुढ़ापे से जर्जरित देह वाला। सिढिल-तयावलितरंग-संपिणद्धगत्ते-शिथिल होने के कारण जिसकी चमड़ी (त्वचा) में सलवटें (झुरियां) पड़ गई हों, ऐसे शरीर वाला / पविरल-परिसडियवंतसेढी—जिसके कई दांत गिर जाने से बहुत थोड़े (विरल) दांत रहे हों / उहाभिहए-उष्णता से पीडित / तण्हाभिहए---प्यास से पीडित / आउरे-रोगी / झुशिए-बुभुक्षित-क्षुधातुर / पिवासिएपिपासित / किलंते—क्लान्त / कोसंब-गंडियं-कोशम्ब वृक्ष की लकड़ी / जडिलं-मुडी हुई। गंठिल्लं-गांठ वाली / वाइद्ध-व्यादिग्ध-वक्र / अपत्तियं-जिसको अाधार न हो। अक्कमेज्जाप्रहार करे / परसुणा --कुल्हाड़े से / महंताई-बडे-बड़े / दलाई अवद्दालेति-टुकड़े कर देता है। महापज्जवसाणा-मोक्ष रूप फल वाला / सुक्कं तणहत्थगं-सूखे घास के पूले को / जायतेयंसिअग्नि में / परिविद्धत्थाई-परिविध्वस्त-नष्ट / निउणसिप्पोवगए-निपुण शिल्पकार / मुडोभोंथरा / // सोलहवां शतक: चौथा उद्देशक समाप्त // 1. (क) वियाहपणत्ति सुत्तं भा. 2 प. 753-754 (ख) व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र (श्री प्रागम प्रकाशन समिति ब्यावर) खंड 2 श.६ उ. 1 सू-४ 2. अन्न विना ग्लायति-ग्लानो भवतीति अन्नग्लायकः, चणिकारेण तु नि:स्पहत्वात् सीयकरभोई अंतपंताहारो। -अ. वृत्ति, पत्र 705 3. (क) भगवती अ. वृत्ति, पत्र 705 (ख) भगवती. (हिन्दीविवेचन) भा. 5, प. 2534 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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