________________ पंचमो उद्देसओ : 'गंगदत्त' पंचम उद्देशक : गंगदत्त (जीवनवृत्त) शक्रेन्द्र के पाठ प्रश्नों का भगवान द्वारा समाधान 1. तेणं कालेणं तेणं समएणं उल्लुयतीरे नाम नगरे होत्था। वष्णओ। एगजंबुए चेइए वण्णो / [1] उस काल उस समय में उल्लकतीर नामक नगर था। उसका वर्णन पूर्ववत् / वहाँ एकजम्बूक नाम का उद्यान था। उसका वर्णन पूर्ववत् / 2. तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे जाव परिसा पज्जुवासति / [2] उस काल उस समय श्रमण महावीर स्वामी वहाँ पधारे, यावत् परिषद् ने पर्युपासना की। 3. तेणं कालेणं तेणं समएणं सक्के देविदे देवराया वज्जपाणी एवं जहेव बितिय उद्देसए (सु० 8) तहेव दिवेणं जाणविमाणेणं आगतो जाव जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, 2 ता जाव नमंसिता एवं वदासि ---- [3] उस काल उस समय में देवेन्द्र देव राज बज्रपाणि शक्र इत्यादि सोलहवें शतक के द्वितीय उद्देशक (के सु. 8) में कथित वर्णन के अनुसार दिव्य यान विमान से वहाँ आया और श्रमण भगवान् महावीर को वन्दना-नमस्कार कर उसने इस प्रकार पूछा 4. देवे गं भंते ! महिड्डीए जाव महेसक्खे बाहिरए पोग्गले अपरियादित्ता पभू प्रागमित्तए ? नो इण? सम8। [4] भगवन् ! क्या महद्धिक यावत्' महासौख्यसम्पन्न देव बाह्य पुद्गलों को ग्रहण किये बिना यहां आने में समर्थ है ? [4 उ.] हे शक्र ! यह अर्थ समर्थ नहीं। 5. देवे णं भंते ! महिडीए जाय महेसक्खे बाहिरए पोग्गले परियादित्ता पभू आगमित्तए ? हंता, पभू / [5 प्र. भगवन् ! क्या महद्धिक यावत् महासौख्यसम्पन्न देव बाह्य पुद्गलों को ग्रहण करके यहाँ आने में समर्थ है ? [5 उ.] हाँ, शक्र ! वह समर्थ है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org