________________ पंचम शतक : उद्देशक-२] [419 [5 प्र] भगवन् ! जब पूर्व में ईषत्पुरोवात, पथ्यवात, मन्दवात और महावात बहती हैं, तब क्या पश्चिम में भी ईषत्पुरोवात आदि हवाएँ बहती हैं ?, और जब पश्चिम में ईषत्पुरोवात आदि वायु बहती हैं, तब क्या पूर्व में भी (वे हवाएँ) बहती हैं ? [5 उ.] हाँ, गौतम ! जब पूर्व में ईषत्पुरोवात आदि वायु बहती हैं, तब वे सब पश्चिम में भी बहती हैं, और जब पश्चिम में ईषत्पुरोवात आदि बायु बहती हैं, तब वे सब हवाएँ पूर्व में भी बहती हैं / इसी प्रकार सब दिशानों में भी उपर्युक्त कथन करना चाहिए / 6. एवं विदिसासु वि। [6] इसी प्रकार समस्त विदिशाओं में भी उपर्युक्त पालापक कहना चाहिए। 7. अस्थि णं भंते ! दीविच्चया ईसि ? हंता, अस्थि / [7 प्र.] भगवन् ! क्या द्वीप में भी ईषत्पुरोवात श्रादि वायु होती हैं ? [7 उ.] हाँ, गौतम ! होती हैं / 8. अस्थि णं भंते ! सामुद्दया ईसि ? हंता, अस्थि / [8 प्र.] भगवन् ! क्या समुद्र में भी ईषत्पुरोवात आदि हवाएँ होती हैं ? [8 उ.] हाँ, गौतम ! (समुद्र में भी ये सब हवाएँ) होती हैं। 6. [1] जया णं भंते ! दोविच्चया ईसि० तदा णं सामुद्दया वि ईसि०, जदा गं सामुद्दया ईसि० तदा गं दीविच्चया वि ईसि० ? णो इण? सम? / [8-1 प्र.] भगवन् ! जब द्वीप में ईषत्पुरोवात आदि वायु बहती हैं, तब क्या सामुद्रिक ईषत्पुरोवात आदि वायु बहती हैं ? और जब सामुद्रिक ईषत्पुरोवात प्रादि वायु बहती हैं, तब क्या द्वोपीय ईषत्पुरोवात प्रादि वायु बहती हैं ? [9-1 उ.] हे गौतम ! यह बात (अर्थ) समर्थ (शक्य) नहीं है / [2] से केणठेणं भंते ! एवं वुच्चति ‘जदा णं दीविच्चया ईसि णो णं तया सामहया ईसि, जया णं सामदया ईसि णो णं तदा दीविच्चया ईसि ? गोयमा! तेसि णं वाताणं अन्नमन्नस्स विवच्चासेणं लवणे समुद्दे वेलं नातिक्कमति से तेणठेणं जाव वाता वायंति। [9.2 प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है कि जब द्वीपीय ईषत्पुरोवात आदि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org