________________ बिइओ उद्देसओ : 'अरिगल' द्वितीय उद्देशक : 'अनिल' ईषत्पुरोवात आदि चतुर्विध वायु की दिशा, विदिशा, द्वीप, समुद्र आदि विविध पहलुओं से प्ररूपरणा 1. रायगिहे नगरे जाव एवं वदासी[१] राजगृह नगर में यावत् (श्री गौतमस्वामी ने) इस प्रकार पूछा---- 2. अस्थि णं भंते ! ईसि पुरेवाता, पत्था वाता, मंदा वाता, महावाता वायंति ? हंता, अस्थि / [2 प्र.] भगवन् ! क्या ईषत्पुरोवात (ोस आदि से कुछ स्निग्ध, या चिकनी व कुछ गीली हवा), पथ्यवात (वनस्पति आदि के लिए हितकर वायु), मन्दवात (धीमे-धीमे चलने वाली हवा), तथा महावात (तीव्रगति से चलने वाली, प्रचण्ड तूफानी वायु, झंझावात, या अन्धड़ उद्दण्ड आँधी आदि) बहती (चलती) हैं ? [2 उ.] हाँ, गौतम ! पूर्वोक्त वायु (हवाएँ) बहती (चलती) हैं। 3. अस्थि णं भंते ! पुरथिमेणं ईसि पुरेवाता, पस्था वाता, मंदा वाता, महाबाता वायति ? हंता, अस्थि / _ [3 प्र.] भगवन् ! क्या पूर्व दिशा से ईषत्पुरोवात, पश्यवात, मन्दवात और महावात बहती हैं ?' [3 उ.] हाँ, गौतम ! (उपर्युक्त समस्त वायु पूर्व दिशा में) बहती हैं / 4. एवं पच्चत्थिभेणं, दाहिणेणं, उत्तरेणं, उत्तर-पुरस्थिमेणं, पुरथिम-दाहिणेणं, दाहिणपच्चस्थिमेणं, पच्छिम-उत्तरेणं / [4] इसी तरह पश्चिम में, दक्षिण में, उत्तर में, ईशानकोण में, आग्नेयकोण में, नैऋत्यकोण में और वायव्यकोण में (पूर्वोक्त सब वायु बहती हैं / ) 5. जदा णं भंते ! पुरस्थिमेणं ईसि पुरेवाता पत्था वाता मंदा वाता महावाता वायंति तदा णं पच्चस्थिमेण वि ईसि पुरेवाता० ? जया णं पच्चत्यिमेणं ईसि पुरेवाता० तदा गं पुरत्पिमेण वि? हंता, गोयमा ! जदा गं पुरथिमेणं तदा गं पच्चरिथमेण वि ईति, जया णं पचत्थिमेणं तदा णं पुरस्थिमेण वि ईसि / एवं दिसासु / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org