________________ पन्द्रहवां शतक] [126 प्र.] 'भगवन् !' इस प्रकार सम्बोधन करके भगवान गौतम स्वामी ने श्रमण भगवान् महावीर स्वामी को वन्दना-नमस्कार करके इस प्रकार पूछा-'भगवन् ! देवानुप्रिय का अन्तेवासी पूर्वदेश में उत्पन्न सर्वानुभूति नामक अनगार, जो कि प्रकृति से भद्र यावत् विनीत था, और जिसे मलिपुत्र गोशालक ने अपने तप-तेज से (जला कर) भस्म कर दिया था, वह मर कर कहाँ गया, कहाँ उत्पन्न हुप्रा ?' [129 उ.] हे गौतम ! मेरा अन्तेवासी पूर्वदेशोत्पन्न सर्वानुभूति अनगार, जो कि प्रकृति से भद्र, यावत् विनीत था, जिसे उस समय मखलिपुत्र गोशालक ने अपने तप-तेज से जला कर भस्मसात् कर दिया था, ऊपर चन्द्र और सूर्य का यावत् ब्रह्मलोक, लान्तक और महाशुऋकल्प का अतिक्रमण कर सहस्रारकल्प में देव रूप में उत्पन्न हुआ है। वहाँ के कई देवों की स्थिति अठारह सागरोपम की कही गई है। सर्वानुभूति देव की स्थिति भी अठारह सागरोपम की है। वह सर्वानुभूति देव उस देवलोक से अायुष्यक्षय, भवक्षय और स्थितिक्षय होने पर यावत् महाविदेह वर्ष (क्षेत्र) में (जन्म / लेकर) सिद्ध होगा यावत् सर्वदुःखों का अन्त करेगा। सुनक्षत्र अनगार की भावी गति-उत्पत्तिसम्बन्धी निरूपण 130. एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी कोसलजाणवते सुनषखत्ते नामं प्रणगारे पगतिमदए जाव विणीए, से गं भंते ! तदा गोसालेणं मखलिपुत्तेणं तवेणं तेयेणं परिताविए समाणे कालमासे कालं किच्चा कहिं गए, कहि उववन्ने ? एवं खलु गोयमा ! ममं अंतेवासी सुनवखत्ते नामं अणगारे पतिभद्दए जाव विणोए, से णं तदा गोसालेणं मंखलिपुत्तेणं तवेणं तेयेणं परितादिए समाणे जेणेव ममं अंतिए तेणेव उवागच्छति, उवा० 2 वंदति नमंसति, वं० 2 सयमेव पंच महन्वयाई आरुभेति, सयमेव पंच० आ० 2 समणा य समणीओ य खामेति, स. खा० 2 आलोइयपडिक्कते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा उड्ढे चंदिमसूरिय जाव आणय-पाणयारणे कप्पे वीतीवइत्ता अच्चुते कप्पे देवत्ताए उववन्ने / तत्थ णं प्रत्थेगतियाणं देवाणं बावीसं सागरोदमाई ठिती पन्नत्ता, तत्थ णं सुनवखत्तस्स वि देवस्स बावीसं सागरोवमाइं०, सेसं जहा सव्वाणुभूतिस्स जाव अंतं काहिति। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र (129) में श्री गौतम स्वामी द्वारा सर्वानुभूति अनगार की गतिउत्पत्ति के सम्बन्ध में भगवान् से पूछे गए प्रश्न का उत्तर प्रतिपादित है / [130 प्र.] भगवन् ! आप देवानुप्रिय का अन्तेवासी कौशलजनपदोत्पन्न सुनक्षत्र नामक अनगार, जो प्रकृति से भद्र यावत् विनीत था, वह मंलिपुत्र गोशालक द्वारा अपने तप-तेज से परितापित किये जाने पर काल के अवसर पर काल करके कहाँ गया ? कहाँ उत्पमा हुमा? [130 उ.] गौतम ! मेरा अन्तेवासी सुनक्षत्र नामक अनगार, जो प्रकृति से भद्र, यावत् विनीत था; वह उस समय मंलिपुत्र गोशालक के तप-तेज से परितापित हो कर मेरे पास आया / फिर उसने मुझे वन्दना-नमस्कार करके स्वयमेव पंचमहाव्रतों का उच्चारण (प्रारोपण) किया। फिर श्रमण-श्रमणियों से क्षमापना की, और आलोचना-प्रतिक्रमण करके, समाधि प्राप्त कर काल के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org