________________ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र परिग्गहिए। उसका प्राशय यह है कि चारित्र प्राप्ति से पहले वह भूतपूर्व विभंगज्ञानी सम्यक्त्व प्राप्त करता है और सम्यक्त्व प्राप्त होते ही उसका विभंगज्ञान अवधिज्ञान के रूप में परिणत हो जाता है। उसके बाद की प्रक्रिया है---श्रमणधर्म की रुचि, चारित्रधर्मस्वीकार, बेशग्रहण आदि, जो कि मूलपाठ में पहले बता दी गई है / ' अणिक्खित्तणं' आदि शब्दों का भावार्थ-अणिखित्तेणं लगातार बीच में छोड़े बिना। पगिज्झिय-रख कर / आयावणभूमीए-पातायना लेने के स्थान में / पगइपतणुकोह..---प्रकृति से, स्वभाव से ही पनले क्रोधादि कषाय / मिउमद्दवसंपण्णयाए—अत्यन्त मृदुता-कोमलता से सम्पन्न होने के कारण / अल्लोणयाए-अलीनता-अनासक्ति = कामभोगों के प्रति गद्ध रहितता / अण्णया कयाविअन्य किसी समय / परिहायमाणेहि = परिक्षीण होते हुए / परिवड्ढमाणेहि = बढ़ते-बढ़त / ओही परावत्तइ-अवधिज्ञान में परिवत्तित हो जाता है / 2 / पूर्वोक्त अवधिज्ञानी में लेश्या, ज्ञान प्रादि का निरूपण 15. से णं भंते ! कतिसु लेस्सासु होज्जा ? / गोयमा ! तिसु विसुद्धलेस्सासु होज्जा, तं जहा-तेउलेस्साए पम्हलेस्साए सुक्कलेस्साए / [25 प्र. भगवन् ! वह अवधिज्ञानी कितनी लेश्याओं में होता है ? | 15 उ. | गौतम ! वह तीन विशुद्ध लेश्याओं में होता है / यथा--१. तेजोलश्या, 2. पद्मलेश्या और 3. शुक्ललेल्या / / 16. से णं भंते ! कतिसु णाणेसु होज्जा ? गोयमा ! तिसु, आभिणिबोहियनाण-सुयनाण-ओहिनाणेसु होज्जा / [16 प्र. भगवन् ! वह अवधिज्ञानी कितने ज्ञानों में होता है ? [16 उ.] गौतम ! वह आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान, इन तीन ज्ञानों में होता है। 17. [1] से णं भंते ! कि सजोगी होज्जा, अजोगी होज्जा? गोयमा ! सजोगी होज्जा, नो अजोगी होज्जा / [17-1 प्र. भगवन् ! वह सयोगी होता है, या प्रयोगी ? 117-1 उ. गौतम ! वह सयोगी होता है, अयोगी नहीं होता। [2] जई सजोगी होज्जा कि मणजोगी होज्जा, वइजोगी होज्जा, कायजोगी होज्जा? गोयमा ! मणजोगी वा होज्जा, वइजोगी वा होज्जा, कायजोगी वा होज्जा। [17-2 प्र. भगवन् ! यदि वह सयोगी होता है, तो क्या मनोयोगी होता है. वचनयोगी होता है या काययोगी होता है ? |17-2 उ.] गौतम ! वह मनोयोगी होता है, वचनयोगी होता है और काययोगी भी होता है। 1. भगवती. अ. बृत्ति, पत्र 433-434 2. वही. पत्र 436 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org