________________ नवम शतक : उद्देशक-३१] [443 लोभ की अत्यन्त मन्दता होने से, अत्यन्त मृदुत्वसम्पन्नता से, कामभोगों में अनासक्ति से, भद्रता और विनीतता से नथा किसी समय शुभ अध्यवसाय, शुभ परिणाम, विशुद्ध लेश्या एवं तदावरणीय (विभगज्ञानाबरणीय) कर्मों के क्षयोपशम से ईहा, अपोह, मार्गणा और गवेषणा करते हुए 'विभंग' नामक प्रज्ञान उत्पन्न होता है / फिर वह उस उत्पन्न हुए विभंगजान द्वारा जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग और उत्कृष्ट असंख्यात हजार योजन तक जानता और देखता है। उस उत्पन्न हुए विभगज्ञान से बह जीवों को भी जानता है और अजीवों को भी जानता है / वह पाषण्डस्थ, सारम्भी (आरम्भयुक्त), सपरिग्रह (परिग्रही) और संक्लेश पाते हुए जीवों को भी जानता है और विशुद्ध होते हुए जीवों को भी जानता है। (तत्पश्चात) वह (विभंगज्ञानी) सर्वप्रथम सम्यक्त्व प्राप्त करता है, सम्यक्त्व प्राप्त करके श्रमणधर्म पर रुचि करता है, श्रमणधर्म पर रुचि करके चारित्र अंगीकार करता है। चारित्र अंगीकार करके लिंग (साधुवेश) स्वीकार करता है / तब उस (भूतपूर्व विभंगज्ञानी) के मिथ्यात्व के पर्याय क्रमश: क्षीण होते-होते और सम्यग-दर्शन के पर्याय क्रमश: बढ़ते-बढ़ते वह 'विभंग' नामक अज्ञान, सम्यक्त्व-युक्त होता है और शीघ्र ही अवधि (ज्ञान) के रूप में परिवर्तित हो जाता है। विवेचन–'तस्स छठंछट्टण' : आशय-जो व्यक्ति केवली आदि से विना सुने हो केबलज्ञान उपार्जन कर लेता है, ऐसे किसी जोव को किस क्रम से प्रवधिज्ञान प्राप्त होता है, उसकी प्रक्रिया यहाँ बताई गई है / 'छट्टछट्ठणं' यहाँ यह बताने के लिए कहा गया है कि प्राय: लगातार बेले-बेले की तपस्या करने वाले बालतपस्वी को विभंगज्ञान उत्पन्न होता है।' ईहायोहमग्गणगवेसणं : ईहा- विद्यमान पदार्थों के प्रति ज्ञानचेष्टा / अपोह—'यह घट है, पट नहीं, इस प्रकार विपक्ष के निराकरणपूर्वक बस्तुतत्व का विचार / मार्गण-अन्वयधर्म-पदार्थ में विद्यमान गुणों का पालोचन (विचार)। गवेषण---व्यतिरेक (धर्म) का निराकरण रूप पालोचन (विचार) समुत्पन्न विभंगजान की शक्ति प्रस्तूत सूत्र में बताया गया है कि वह बालतपस्वी विभंगज्ञान प्राप्त होने पर जीवों को भी कथंचित् ही जानता है, साक्षात् नहीं, क्योंकि विभंगज्ञानी मूर्तपदार्थों को ही जान सकता है, अमूर्त को नहीं। इसी प्रकार पाषण्डस्थ यानी व्रतस्थ, प्रारम्भ-परिग्रहयुक्त होने से महान् सक्लेश पाते हुए जीवों को भी जानता है और अल्पमात्रा में परिणामों की विशुद्धि होने से परिणामविशुद्धिमान् जनों को भी जानता है / विभंगज्ञान अवधिज्ञान में परिणत होने की प्रक्रिया- इससे पूर्व प्रकृतिभद्रता, विनम्रता, कषायों की उपशान्तता, कामभोगों में अनासक्ति, शुभ अध्यवसाय एवं सुपरिणाम आदि के कारण विभंगज्ञानी होते हुए भी परिणामों की विशुद्धि होने से सर्वप्रथम सम्यक्त्वप्राप्ति, फिर श्रमणधर्म पर रुचि, चारित्र को अंगीकार और फिर साधुवेष को स्वीकार करता है / सम्यक्त्वप्राप्ति किस प्रकार होती है ? इसको प्रक्रिया बताने के लिए अन्त में पाठ दिया गया है-"विभंगे अण्णाणे सम्मत्त . ..--..---- 1. भगवती. अ. वृत्ति , पत्र 433 2. वही अ. वृत्ति पत्र 43 3 3. वहीं अ. वृत्ति, पत्र 433 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org