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________________ 442] व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र कर्म का क्षयोपशम नहीं किया, (4) चारित्रावरणीयकर्म का क्षयोपशम नहीं किया, (5) यतनावरणीयकर्म का क्षयोपशम नहीं किया, (6) अध्यबसानाबरणीयकर्म का क्षयोपशम नहीं किया, (7) प्राभिनिबोधिकज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम नहीं किया, (8 से 10) इसी प्रकार श्रुतज्ञानावरणीय, अवधिज्ञानावरणीय और मन:पर्यवज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम नहीं किया, तथा (11) केवलज्ञानावरणीयकर्म का क्षय नहीं किया, वे जीव केवली आदि से धर्मश्रमण किये विना धर्म-श्रवणलाभ नहीं पाते. शुद्धबोधिलाभ का अनुभव नहीं करते, यावत् केवलज्ञान को उत्पन्न नहीं कर पाते। (1) जिस जीव ने ज्ञानावरणीयकर्मों का क्षयोपशम किया है, (2) जिसने दर्शनावरणीयकर्मों का क्षयोपशम किया है, (3) जिसने धर्मान्तरायिककर्मों का क्षयोपशम किया है, (4-11) यावत् जिसने केवलज्ञानावरणीयकर्मों का क्षय किया है, वह केवली आदि से धर्मश्रवण किये विना ही केवालप्ररूपित धर्म-श्रवण लाभ प्राप्त करता है, शुद्ध बोधिलाभ का अनुभव करता है, यावत् केवलज्ञान को उपाजित कर लेता है। विवेचन-ग्यारह बोलों की प्राप्ति किसको और किसको नहीं ? केवलज्ञानी आदि दस में से किसी से शुद्ध धर्म-श्रवण किये बिना ही कौन व्यक्ति केबलि-प्ररूपित धर्मश्रवण का लाभ पाता, शुद्ध सम्यग्दर्शन का अनुभव करता है, यावत् केवलज्ञान उपार्जित करता है ? इसके उत्तर में प्रस्तुत सूत्र (सं. 13) में उन-उन कर्मों का क्षयोपशम तथा क्षय करने वाले व्यक्ति को उस-उस बोल की प्राप्ति बताई गई है। इसके विपरीत जिस व्यक्ति के उन-उन आवारक कमों का क्षयोपशम या क्षय नहीं होता. वह उस-उस बोल की प्राप्ति से वंचित रहता है। केवली प्रादि से विना सुने केवलज्ञानप्राप्ति वाले को विभंगज्ञान एवं क्रमशः अवधिज्ञान प्राप्त होने की प्रक्रिया 14. तस्स णं छठंछठेणं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं उड्ढं बाहाओ पगिझिय पगिझिय सूराभिमुहस्स आयावणभूमीए आयावेमाणस्स पगतिभयाए पगइउवसंतयाए पगतिपयणुकोह-माणमाया-लोभयाए मिउमद्दवसंपन्नयाए अल्लोणताए भइताए विणीतताए अण्णया कयाइ सुभेणं अज्शवसागणं, सुभेणं परिणामेणं, लेस्साहि विसुज्झमाणोहि तयावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहापोहमग्गण-गवेसणं करेमाणस्स विभंगे नामं अन्नाणे समुप्पज्जइ, से णं तेणं विभंगनाणेणं समुप्पन्नेणं जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं, उक्कोसेणं असंखेज्जाइं जोयणसहस्साई जाणइ पासइ, से णं तेणं विभंगनाणेणं समुष्पन्नेणं जीवे वि जाणइ, अजीवे वि जाणइ, पासंडत्थे सारंभे सपरिग्गहे संकिलिस्समाणे वि जाणइ, विसुज्झमाणे वि जाणइ, से णं पुवामेव सम्मत्तं पडिवज्जइ, सम्मत्तं पडिवज्जित्ता समणधम्म रोएति, समणधम्म रोएत्ता चरित्तं पडिबज्जइ, चरित्तं परिवज्जित्ता लिगं पडिवज्जइ, तस्त णं तेहि मिच्छत्तपज्जवेहि परिहायमार्गाह परिहायमाहि, सम्मइंसणपज्जर्वेहि परिवड्डमाणेहि परिबट्टमाह से विभंगे अन्नाणे सम्मतपरिम्गाहिए खिप्पामेव ओही परावत्तइ / {14} निरन्तर छठ-छठ (वेले-बेले ) का तपःकर्म करते हुए सूर्य के सम्मुख बाहें ऊंची करके आतापनाभूमि में प्रातापना लेते हुए उस (विना धर्मश्रवण किए केवलज्ञान तक प्राप्त करने वाले) जीव की प्रकृति-भद्रता से, प्रकृति की उपशान्तता से स्वाभाविक रूप से ही क्रोध, मान, माया और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003473
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1982
Total Pages2986
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size69 MB
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