________________ अट्ठमो उद्देसओ : 'कम्म' अष्टम उद्देशक : कर्मप्रकृति प्रज्ञापना के अतिदेशपूर्वक कर्मप्रकृतिभेदादि निरूपण 1. कति णं भंते ! कम्मपगडीनो पन्नत्तामो? गोयमा ! अटु कम्मपगडीओ पन्नत्ताओ / एवं बंधट्ठितिउद्देसओ भाणियब्वो निरबसेसो जहा पन्नवणाए। तेवं भंते ! सेवं भंते ! ति० / // तेरसमे सए : अट्ठमो उद्देसओ समत्तो // 13-8 // [1 प्र.] भगवन् ! कर्मप्रकृतियां कितनी कही गई हैं ? [1 उ.] गौतम ! कर्मप्रकृतियां आठ कही गई हैं। यहाँ प्रज्ञापनासूत्र के 23 वें पद के द्वितीय बन्ध-स्थिति-उद्देशक का सम्पूर्ण कथन करना चाहिए / हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है, यों कह कर यावत् गौतम स्वामी विचरण करने लगे। विवेचन–प्रस्तुत सूत्र में प्रज्ञापनासत्र के तेईसवें पद के द्वितीय बन्ध-स्थिति नामक उद्देशक के अतिदेशपूर्वक क्रमशः आठ मूल कर्मप्रकृतियां, फिर इन आठों के भेद, (जैसे कि ज्ञानावरणीय आदि पाठ, फिर ज्ञानावरणीय के पांच भेद इत्यादि), तदनन्तर ज्ञानावरणीयादि पाठों कर्मों के स्थितिबन्ध का वर्णन, फिर एकेन्द्रियादि जीवों के अनुसार बन्ध का निरूपण किया गया है।' // तेरहवां शतक : आठवां उद्देशक समाप्त / / 1. (क) प्रज्ञापना पद 23, उ. 2. स. 1687 से 1753, पृ. 367-84 -पण्णवणासुत्त भा. 1 (महावीर जैन विद्यालय) (ख) वाचनान्तर में संग्रहणी गाथा इस प्रकार है "पयडी भेय ठिईबंधो विय इंदियाणुबाएणं / केरिसय जहन्नाठि बंधइ उक्कोसियं वावि // " -भगवती. अ. वृत्ति, पत्र 626 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org