________________ 340] [व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र विवेचन-पण्डितमरण: भेद-प्रभेद और उनका स्वरूप—पण्डितमरण के मुख्यतया दो भेद हैं--पादपोपगमन और भक्त-प्रत्याख्यान / पादपोपगमन का अर्थ है-संथारा करके कटे हुए वृक्ष की तरह जिस स्थान पर, जिस रूप में एक बार लेट जाए, फिर उसी स्थान में निश्चल होकर लेटे रहना और उसी रूप में समभावपूर्वक शरीर त्याग देना / इस मरण में हाथ-पैर हिलाने या नेत्रों की पलक झपकाने का भी प्रागार नहीं होता। यह मरण नियमतः अप्रतिकर्म (शरीर को धोना, मलना आदि शरीरसंस्कार से रहित) होता है।' भक्तप्रत्याख्यान-यावज्जीवन तीन या चारों प्रकार के आहारों का त्याग करके समभावपूर्वक मृत्यु का वरण करना भक्तप्रत्याख्यानमरण है / इसे भक्तपरिज्ञा भी कहते हैं / इंगितमरण भक्तप्रत्याख्यान का ही विशिष्ट प्रकार है, इसलिए उसका पृथक् उल्लेख नहीं किया गया / भक्त.प्रत्याख्यानमरण नियमत: सप्रतिकर्म (शरीरसंस्कारयुक्त होता है। इसमें हाथ-पैर हिलाने तथा शरीर की सारसंभाल करने का प्रागार रहता है / निर्झरिम-अनिर्झरिम-ये दोनों भेद पादपोपगमन एवं भक्तप्रत्याख्यान, इन दोनों के हैं। निहरि कहते हैं-बाहर निकालने को। जो साधु गाँव आदि के अन्दर ही किसी मकान या उपाश्रय में शरीर छोड़ता है, उस साधु के शव का उपाश्रय आदि से बाहर निकाल कर अन्तिम संस्कार किया जाता है। अतएव उस साधु का पण्डितमरण निर्झरिम कहलाता है। परन्तु जो साधु अरण्य या गुफा आदि में आहारादि का त्याग करके अन्तिम समय में शरीर छोड़ता है, समभाव पूर्वक मरता है, उसके मृत शरीर को कहीं बाहर निकाला नहीं जाता। इसलिए उक्त साधु के पण्डितमरण को 'अनिभरिम' कहते हैं / // तेरहवां शतक : सप्तम उद्देशक समाप्त // 1. भगवतीसूत्र (हिन्दीविवेचन) भा. 5, पृ. 2262 2. व्याख्याप्रज्ञप्ति (श्री आगमप्रकाशनसमिति) खण्ड 1, पृ. 181 3. भगवती. (हिन्दी विवेचन) भा. 5, पृ. 2262 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org