________________ पन्द्रहवां शतक [505 वर्ष तक गन्धहस्ती के समान जिन (तीर्थकर) रूप में विचरूगा / (यद्यपि मेरा शरीर पित्तज्वराक्रान्त है, मैं दाह की उत्पत्ति से पीड़ित है; अतः मेरे मरण की चिन्ता से मुक्त होकर) हे सिह ! तुम मेंटिकग्राम नगर में रेवतो गाथापत्नी के घर जानो और वहाँ रेवती गाथापत्नी ने मेरे लिए कोहले के दो फल संस्कारित करके तैयार किये हैं, उनसे मुझे प्रयोजन नहीं है, अर्थात् वे मेरे लिए ग्राह्य नहीं हैं, किन्तु उसके यहाँ मार्जार नामक वायु को शान्त करने के लिए जो बिजौरापाक कल का तैयार किया हुआ है, उसे ले आओ। उसी से मुझे प्रयोजन है। 122. तए णं से सीहे अणगारे समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ते समाणे हद्वतु० जाव हियए समणं भगवं महावीरं वंदति नमसति, वं० 2 अतुरियमचवलमसंभंतं मुहपोत्तियं पडिलेहेति, मु०५० 2 जहा गोयमसामी (स० 2 उ०५ सु० 22) जाव जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवा० 2 समणं भगवं महावीरं वंदति नमसति, वं० 2 समणस्स भगवतो महावीरस्स अंतियातो सालकोट्टयाओ चेतियानो पडिनिक्खमति, पडि 0 2 अतुरिय जाव जेणेव मेंढियग्गामे नगरे तेणेव उवागच्छति, उवा० 2 मेंढियग्गामं नगरं मज्झमझेणं जेणेव रेवतीए गाहावतिणीए गिहे तेणेव उवागच्छइ, उचा० 2 रेवतोए गाहावतिणीए गिहं अणुष्पविठे / |122] श्रमण भगवान महावीर स्वामी के द्वारा इस प्रकार का आदेश पाकर सिंह अनगार हर्षित सन्तुष्ट यावत् हृदय में प्रफुल्लित हुए और श्रमण भगवान महावीर को वन्दना-नमस्कार किया, फिर त्वरा, चपलता और उतावली से रहित हो कर मुखवस्त्रिका का प्रतिलेखन किया (शतक 2 उ. 5 सू. 22 में उक्त कथन के अनुसार) गौतम स्वामी की तरह भगवान महावीर स्वामी के पास पाए, वन्दना-नमस्कार करके शालकोष्ठक उद्यान से निकले / फिर त्वरा, चपलता और शीता रहित यावत् में ढिकग्राम नगर के मध्य भाग में हो कर रेवती गाथापत्नी के घर की ओर चले और उसके घर में प्रवेश किया। 123. तए णं सा रेवती गाहावतिणी सोहं अणगारं एज्जमाणं पासति, पा० हतुद० खिप्यामेव प्रासणाओ अब्भुट्ठति, खि० आ० 2 सोहं अणगारं सत्तट्ठ पयाई अणुगच्छइ, स. अणु० 2 तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेति, क० 2 वंदति नमसति, 202 एवं बयासी-संदिसंतुणं देवाणुपिया! किमागमणप्पओयणं? तए णं से सोहे अणगारे रेवति गाहावतिणि एवं वयासि एवं खलु तुमे देवाणुप्पिए ! समणस्स भगवतो महावीरस्स अट्ठाए दुवे कवोयसरीरा उवक्खडिया तेहि नो अट्ठ, अस्थि ते अन्ने पारियासिए मज्जारकडए कुक्कुडमंसए तमाहराहि, तेणं अट्ठो। [123] तदनन्तर रेवती गाथापत्नी ने सिंह अनगार को ज्यों ही आते देखा, त्यों ही हर्षित एवं सन्तुष्ट होकर शीघ्र अपने आसन से उठी / सिंह अनगार के समक्ष सात-पाठ कदम गई और तीन बार दाहिनी ओर से प्रदक्षिणा करके बन्दना-नमस्कार कर इस प्रकार बोली-'देवानुप्रिय ! कहिये, किस प्रयोजन से प्रापका पधारना हुआ?' तब सिंह अनगार ने रेवती गाथापत्नी से कहा-हे देवानुप्रिये ! श्रमण भगवान् महावीर के लिए तुमने जो कोहले के दो फल संस्कारित करके तैयार किये हैं, उनसे प्रयोजन नहीं है, किन्तु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org