________________ अठारहवां शतक : उद्देशक 8] 7i35 [23 प्र.] भगवन् ! क्या केवलज्ञानी जिस समय परमाणुपुद्गल को जानता है, उस समय देखता है ? इत्यादि प्रश्न / [23 उ.] गौतम ! जिस प्रकार परमावधिज्ञानी के विषय में कहा है, उसी प्रकार केवलज्ञानी के लिए भी कहना चाहिए। और इसी प्रकार (का कथन) यावत् अनन्तप्रदेशी स्कन्ध तक (समझना चाहिए।) 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है,' यों कह कर यावत् गौतम स्वामी विचरते हैं। विवेचन–अवधिज्ञानी, परमावधिज्ञानी और केवलज्ञानी के युगपत ज्ञान-दर्शन की शक्ति विषयक प्ररूपणा-आधोऽवधिक का अर्थ है--सामान्य अवधिज्ञानी, परमावधिक का अर्थ है-उत्कृष्ट अवधिज्ञानी / परमावधिक को अन्तर्मुहूर्त में अवश्यमेव केवलज्ञान प्राप्त हो जाता है। परस्पर विरुद्ध दो धर्म वालों का एक ही काल में एक स्थान में होना संभव नहीं होता / तथा ज्ञान और दर्शन दोनों की क्रिया एक ही समय में नहीं होती, क्योंकि समय सुक्ष्मतम काल है, आँख की पलक झा असंख्यात समय व्यतीत हो जाते हैं। जैसे कमल के सौ पत्तों को सूई से भेदन की प्रतीति तो एक साथ एक ही काल की होती है, परन्तु कमल के सौ पत्तों के एक साथ भेदन में भी असंख्यात समय लग जाते हैं।' ॥अठारहवां शतक : आठवां उद्देशक समाप्त // 1. (क) भगवती. अ. वत्ति, पत्र 756 (ख) प्रमाणनयतत्त्वालोक परि. 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org