________________ बिइए 'लोही'वग्गे : दस उद्देसगा द्वितीय 'लोही'वर्ग : दश उद्देशक प्रथम वर्गानुसार द्वितीय लोहीवर्ग का निरूपरण 1. प्रह भंते ! 'लोही-णीहू-धीह-थीभगा-अस्सकण्णी-सीहकरणी-सीठी-मुसुठीणं, एएसि णं जे जीवा मूल० ? एवं एत्थ वि दस उद्देसगा जहेव पालुवागे, णवरं प्रोगाणा तालवासरिसा, सेसं तं चेव। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति। // बितियो वग्गो समत्तो // 23-2 // [1 प्र.] भगवन् ! लोही, नीह, थीह, थीभगा, अश्वकर्णी, सिंहकर्णी, सी उंढी और मुसुंढी इन सब वनस्पतियों के मूल के रूप में जो जीव उत्पन्न होते हैं, वे कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? [1 उ.] गौतम ! पालकवर्ग के समान यहाँ भी मूलादि दस उद्देशक (कहने चाहिए)। - विशेष यह है कि इनकी अवगाहना तालवर्ग के समान है / शेष (सब कथन) पूर्ववत् (समझना चाहिए।) 'हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है, भगवन् ! यह इसी प्रकार है' यों कहकर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। // तेईसवे शतक का द्वितीय वर्ग समाप्त / / 0 2. पाच अचार वर्षद बाल साहित्या, महत्यिहत्यिभागा.. 1. पाठभेद-प्रज्ञापनासूत्र में कुछ पदों में पाठभेद है। यथा अवए पणए सेवाल लोहिणी, मिहूस्थिहस्थिभागा / असकण्णी सीहकाणी सिढि तत्तो मुसुढीय // 43 // ... -प्रज्ञापना पद 1, पत्र 34-2 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org