________________ 166] [स्यास्याप्रज्ञप्तिसूत्र विवेचन-निष्कर्ष--जो संज्ञी तिर्यञ्च पंचेन्द्रिय असुरकुमारों में आकर उत्पन्न होते हैं, वे दोनों प्रकार के होते हैं-संख्यात वर्ष को आयु वाले और असंख्यात वर्ष की आयु वाले / ' असुरकुमार में उत्पन्न होनेवाले असंख्येयवर्षायुष्क संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक की उपपात-परिमाणादि बीस द्वारों की प्ररूपणा 6. असंखेज्जवासाउयसन्निपंचेंदियतिरिक्खजोणिए णं भंते ! जे भविए असुरकुमारेसु उववज्जितए से णं भंते ! केवतिकालद्वितीएस उववज्जेज्जा? गोयमा ! जहन्नेणं दसवाससहस्सद्वितीएसु उववज्जेज्जा, उक्कोसेणं तिपलिग्रोवमद्वितीएसु उववज्जेज्जा। [6 प्र.] भगवन् ! असंख्यातवर्ष की आयु वाले संज्ञी पंचेन्द्रिय-तिर्यञ्चयोनिक जीव, जो असुरकुमारों में उत्पन्न होने योग्य हो, वह कितने काल की स्थिति वाले मसुरकुमारों में उत्पन्न होता है ? [6 उ.] गौतम ! वह जघन्य दस हजार वर्ष की स्थिति वाले और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की स्थिति वाले असुरकुमारों में उत्पन्न होता है / 7. ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं० पुच्छा। गोयमा ! जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिम्निवा, उक्कोसेणं संखेज्जा उववज्जति / वयरोसभनारायसंघयणी। प्रोगाहणा जहन्नेणं धणुपुहत्तं, उक्कोसेणं छग्गाउयाई। समचउरंससंठाणसंठिया पन्नत्ता। चत्तारि लेस्साओ प्रादिल्लायो। नो सम्माहिटी, मिच्छादिट्ठी, नो सम्मामिच्छादिट्ठी / नो भाणी, अनाणी, नियमं दुअण्णाणी, तं जहा–मतिप्रन्नाणी, सुयअन्नाणी य / जोगो तिविहो वि। उवयोगो दुविहो वि। चत्तारि सण्णाश्रो। चत्तारि कसाया। पंच इंदिया। तिन्नि समुग्घाया प्रादिल्लगा। समोहया वि मरंति, असमोहया वि मरंति / वेयणा दुविहा वि। इत्थिवेदगा वि, पुरिसवेदगा वि, नो नपुंसगवेदगा। ठितो जहन्नेणं सातिरेगा पुवकोडी, उक्कोसेणं तिन्नि पलिओवमाई। अज्झवसाणा पसत्था वि अप्पसत्था वि / अणुबंधो जहेव ठिती। कायसंवेहो भवाएसेणं दो भवग्गहणाई; कालाएसेणं जहन्नेणं सातिरेगा पुन्चकोडी दसहि वाससहस्सेहिं अमहिया, उक्कोसेणं छप्पलिओवमाई, एवतियं जाव करेज्जा। [पढमो गमत्रो]। [7 प्र. भगवन् ! वे जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? इत्यादि प्रश्न / [7 ल.] गौतम ! वे जघन्य एक, दो या तीन और उकृष्ट संख्यात उत्पन्न होते हैं। वे वनऋषभनाराचसंहनन वाले होते हैं। उनकी अवगाहना जघन्य धनुषपृथक्त्व की और उत्कृष्ट छह गाऊ (गव्यूति दो कोस) की होती है। वे समचतुरस्त्रसंस्थान वाले होते हैं। उनमें प्रारम्भ की चार लेश्याएं होती हैं। वे सम्यग्दृष्टि और सम्यगमिथ्यादृष्टि नहीं होते, केवल मिथ्यादृष्टि होते हैं / वे ज्ञानी नहीं, अज्ञानी होते हैं। उनमें नियम से दो अज्ञान होते हैं-मति-अज्ञान और श्रत-अज्ञान / उनमें योग तीनों ही पाये जाते हैं। उपयोग भी दोनों प्रकार के होते हैं। उनमें चार 1. वियाहपण्णत्तिसुत्तं भा. 2, पृ. 922 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org